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बुधवार, 21 अप्रैल 2010

देर तक देखा न कर

देर तक देखा न कर.
आईना मैला न कर.


बेचकर अपनी खुदी
कद बहुत ऊंचा न कर.


बांध तारीफों के पुल
रेत को दरिया न कर.


पाओं जब लम्बे नहीं
रास्ता छोटा न कर.


तू हवा, तूफ़ान मैं
सामना मेरा न कर.


---देवेंद्र गौतम 

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

वक़्त के औराक़ पे.....

वक़्त के औराक़ पे हर्फे-गुजिश्ता हो गया.
भूल जा मुझको कि मैं माजी का किस्सा हो गया.


मैं कि तितली की तरह लपका था फूलों की तरफ
और कांटों से उलझकर पर-शिकस्ता हो गया.


जिसपे सूरज की कोई आवाज़ पहुंची ही नहीं
मैं अंधेरों का वही सूना जज़ीरा हो गया.


एक दिन जलते हुए सूरज से आंखें लड़ गयीं
फिर मेरे चारो तरफ रौशन अंधेरा हो गया.


जाने किस टूटे हुए रिश्ते की याद आने लगी
जब कोई बारात निकली मैं फ़सुर्दा हो गया.


----देवेंद्र गौतम

रविवार, 28 मार्च 2010

हवा के दोश पे लहराते....

हवा के दोश पे लहराते पर भी आयेंगे.
लहूलुहान परिंदे इधर भी आयेंगे.

सजा के रख दो कोई आईना हरेक जानिब
इधर भी आयेंगे चेहरे, उधर भी आयेंगे.

वो जिनकी छांव मयस्सर न हो सकेगी कभी
सफ़र में बारहा ऐसे शज़र भी आयेंगे.

भटकने वालों को कुछ और भटक लेने दो
जरा थकेंगे तो फिर अपने घर भी आयेंगे.

सुलूक उनसे भी तुम करना आदमी की तरह
हमारे साथ कई जानवर भी आयेंगे.


---देवेंद्र गौतम

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

हरेक बाब में....

हरेक बाब में सूरज ही लामकां निकला.
किताबे-सुब्ह का हर लफ्ज़ रायगां निकला.


ये खामुशी भी तो खुद इक जुबान होती है
मेरे सुकूत के अन्दर मेरा बयां निकला.


किसी का क़त्ल हुआ और मैं लरज़ उट्ठा
कहां पे आग लगी और कहां धुआं निकला.


मेरा रफीक था, दुश्मन समझ रहा था जिसे
मैं अपने आप में किस दर्ज़ा बदगुमां निकला.


मैं अबके नींद के आगोश में नहीं फिर भी
मेरी तलाश में ख्वाबों का कारवां निकला.


अजीब बोझ था मुझपर मेरे ख्यालों का
जमीं लरजती रही मैं जहाँ-जहाँ निकला.


खुदा का शुक्र है कोई कमी नहीं गौतम
बस इक खुलूस से खाली मेरा मकां निकला.


----देवेंद्र गौतम

शनिवार, 20 मार्च 2010

नवाहे-दिल में है.....

नवाहे-दिल में है आंखों के रू-ब-रू न सही.
तेरा ही अक्स है, इस आईने में तू न सही.


बहुत सताएगी मिलने की आरजू इक दिन
कि मुझको तेरी, तुझे मेरी जुस्तजू न सही.


नज़र मिले न मिले फिर भी बात कर लेना
हमारे दर्मियां कुछ वज्हे-गुफ्तगू न सही.


हमारे दौर की रफ़्तार तो सलामत है
लरजते, टूटते लम्हों की आबरू न सही।


किसी रफ़ीक के क़दमों की चाप तो आये
दरे-खयाल पे अब दस्तके-अदू न सही.


तेरे हिसारे-नज़र में है मेरी जामादरी
ये और बात मुझे हाज़ते- रफू न सही.


हमारे वास्ते ये ज़िन्दगी बसर कर लो
तुम्हारे दिल में अब जीने की आरजू न सही.


गुज़िश्ता वक़्त की धुंधली सी याद बाकी है
हरेक लम्हे की तस्वीर हू-ब-हू न सही.


असीरे-हल्का-ये- वहमो-गुमां न हो गौतम
तू आज अपनी हकीकत के रू-ब-रू न सही.


----देवेंद्र गौतम 

बुधवार, 17 मार्च 2010

जेहनो-दिल में रेंगती हैं......

जेहनो-दिल में रेंगती हैं अनकही बातें बहुत.
दिन तो कट जातें हैं लेकिन सख्त हैं रातें बहुत.

तुम अभी से बदगुमां हो दोस्त! ये तो इब्तिदा है
जिंदगी की राह में होंगी अभी घातें बहुत.

दिल की पथरीली ज़मीं तो फिर भी खाली ही रही
सब्ज़ गालीचे बिछाने आयीं बरसातें बहुत.

कोई बतलाये कहां संजो के रखूं , क्या करूं
मेरी पेशानी पे हैं माजी की सौगातें बहुत.

उन दिनों भी उनसे इक दूरी सी रहती थी बनी
जिन दिनों आपस में होतीं थीं मुलाकातें बहुत.

देखना मैं बांधता हूं अब तखय्युल के तिलिस्म
तुम यहां दिखला चुके अपनी करामातें बहुत.


------देवेंद्र गौतम 

सोमवार, 8 मार्च 2010

कदम- दर-कदम कुछ.....

कदम- दर-कदम कुछ नसीहत रही है.
बुजुर्गों की हमपे इनायत रही है.

मयस्सर नहीं उनको धुंधली किरन भी
जिन्हें रौशनी की जरूरत रही है.

न तहज़ीब ढूंढो कि इन बस्तियों में
न सूरत रही है न सीरत रही है.

कभी बैठकर राह तकते किसी की
मगर इतनी कब मुझको फुर्सत रही है.

घरोंदे बनाकर उन्हें तोड़ देना
यही मेरी अबतक की फितरत रही है.

हवाओं का क्या है कभी रुख बदल दें
हवाओं पे किसकी हुकूमत रही है.

----देवेंद्र गौतम  

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

तुम भी बदले, हम भी बदले......

तुम भी बदले, हम भी बदले, अब वो दिन वो रात कहां .
मिलने को मिलते हैं लेकिन अब पहली सी बात कहां.


उसकी सीप सी आंखें  छलकीं, दो मोती फिर मुझतक आये
मेरे दिल का टूटा प्याला, रक्खूं ये सौगात कहां.


हम सहरा वाले हैं हमसे मौसम के अहवाल न पूछ
जाने अब्र कहाँ छाते हैं, होती है बरसात कहां.


तुम शह देकर इतराते हो, मेरी अगली चाल भी देखो
बाज़ी तो अब शुरू हुई है, खाई हमने मात कहां.


सुनने वाले कब सुनते हैं सुनने वाली बातें अब
कहने वाले भी कहते हैं कहने वाली बात कहां.


----देवेंद्र गौतम  

बुधवार, 3 मार्च 2010

राई को पर्वत.......

राई को पर्वत बनाकर देखना.
बात जितनी हो बढ़ाकर देखना.


जाने किसमें हो अहल्या का निवास
तुम हरेक पत्थर को छूकर देखना.


नाखुदा को भी पड़ा है बारहा
कतरे-कतरे में समंदर देखना.


आज जाने दो मुझे फुर्सत नहीं है
फिर कभी मुझसे उलझकर देखना.


लाख मत चाहो मगर तुमको पड़ेगा
पाओं को बनते हुए सर देखना.


----देवेंद्र  गौतम 

मंगलवार, 2 मार्च 2010

महलों से बेहतर ....

महलों से बेहतर होते हैं.
फूस के घर भी घर होते हैं.


मीठे-मीठे काट के रख दें
ऐसे भी खंज़र होते हैं.


घर में दीवारें होती हैं
दीवारों में दर होते हैं.


जिनपर आंख नहीं टिक पातीं
कुछ ऐसे मंज़र होते हैं.


खुद पे जोर नहीं चलता तो
आपे से बाहर होते हैं.


हमको खुद हैरत होती है
शाम को जिस दिन घर होते हैं.


फूलों में भी चुभन होती है
कांटे भी दिलवर होते हैं.


खून की होली खेलने वाले
अपने लहू से तर होते हैं.


बातें जख्मी कर जाती हैं
लफ़्ज़ों में निश्तर होते हैं.


--देवेंद्र गौतम 

सोमवार, 1 मार्च 2010

फ़ना होते हुए.....

फ़ना होते हुए दीवार-ओ-दर की.
बड़ी मुद्दत पे याद आयी है घर की.


बना लेना घरौंदे इल्म-ओ-फन के
अभी कुछ खाक छानो दर-ब-दर की.


खुदा रूपोश होता जा रहा है
के आंखें खुल रहीं हैं अब बशर की.


रवां होता गया अपने जुनूं में
हवा जिसको नज़र आयी जिधर की.


हम अपनी मंजिलों से आशना हैं
ज़रुरत क्या है हमको राहबर की.


------देवेंद्र गौतम 

रविवार, 28 फ़रवरी 2010

ज़िल्लतें कितनी सहीं.....

ज़िल्लतें कितनी सहीं तब जाके नाकारा हुआ.
तुम न समझोगे कि मैं किस तर्ह आवारा हुआ.


शाम के बुझते हुए माहौल के पेशे-नज़र
मैं भी अब वापस चला घर को थका हारा हुआ.


इन दिनों हर चीज़ की तासीर उल्टी हो गयी
बर्फ के पहलू में मैं बैठा तो अंगारा हुआ.


मुद्दतों ठंढी हवाओं में बसेरा था मगर
गर्म लम्हों की इनायत से मैं बंजारा हुआ.


घूम फिर के आ गया हूं फिर तुम्हारे शहर में
और मैं जाता कहां तकदीर का मारा हुआ.


दुश्मनों के दरमियां  वो कौन है गौतम कि जो
आशना तक भी नहीं और जान से प्यारा हुआ.


---देवेंद्र गौतम 

हौसलों की सरजमीं पे....

हौसलों की सरजमीं पे इक महल सपनों का था.
पाओं दलदल में फंसे थे और सफ़र सदियों का था.


हमको जो बख्शी गयी वो सल्तनत फूलों की थी
और माथे पर जो आया ताज वो कांटों  का था.


मात जब होने को आई तब कहीं जाकर खुला
सारे प्यादे बेसबब थे खेल तो मोहरों का था.


मुझसे जो लिपटे हुए थे आस्तीं के सांप थे
सर पे जो मंडरा रहा था काफिला चीलों का था.


हमसे पहले भी यहां पे रस्म नजराने की थी
बात चाहे जब खुली हो सिलसिला सदियों का था.


---देवेंद्र गौतम 

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

कोई क्या है, पता चलता है......

कोई क्या है, पता चलता है कुछ भी ?
किसी की शक्ल पे लिक्खा है कुछ भी?

गवाही कौन देगा अब बताओ?
किसी ने भी नहीं देखा है कुछ भी.

अगर ताक़त है तो कुछ भी उठा लो
कि मांगे से नहीं मिलता है कुछ भी.

खयालों के उफक पे खामुशी है
न उगता है न अब ढलता है कुछ भी.

सरो-सामां बहुत है घर में लेकिन
सलीके से नहीं रक्खा है कुछ भी.
----देवेंद्र गौतम 

सियासत चल पड़ी....

सियासत चल पड़ी बन-ठन के बाबा!
हजारों फन हैं इस नागन के बाबा!


अलग होता गया रेशे से रेशा
यही होने थे गठबंधन के बाबा!


वहीं चलकर जरा हम आंख सेंकें
जहां अंधे मिलें सावन के बाबा!


हमेशा मौत के सदके उठाये
रहेगी जिन्दगी से ठन के बाबा!


किनारा कर चुके हैं हर किसी से
न अब हम दोस्त न दुश्मन के बाबा!


ज़ेहानत है तो उसको वुस्वतें दें
दिखा दे अब हमें कुछ बन के बाबा!


---देवेंद्र गौतम

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

हवा चुप है, फ़ज़ाओं में कसक.....

हवा चुप है, फ़ज़ाओं में कसक है, गौर से देखो.
ये किस मौसम के आने की धमक है? गौर से देखो.

बुलंदी और पस्ती एक ही सिक्के के दो पहलू
जमीं की गोद में सारा फलक है, गौर से देखो.

मैं सच कहता हूं, मैं सच के सिवा कुछ भी नहीं कहता
मेरे माथे पे चन्दन का तिलक है, गौर से देखो.

जेहानत चंद लोगों में कहीं महदूद रहती है
हरेक पत्थर में हीरे की चमक है, गौर से देखो.

कफ़न ओढ़े हुए खामोश जो लेटा है अर्थी में
अभी भी उसमें जीने की ललक है, गौर से देखो.

कहां ढूंढोगे तुम उसको जो हर जर्रे में रौशन है
हरेक इंसान में उसकी झलक है, गौर से देखो.

ग़मों की धूप में तपकर जो कजलाया बहुत गौतम
उसी चेहरे पे थोड़ा सा नमक है, गौर से देखो.


---देवेंद्र गौतम

हर कोई बेक़रार है बाबा!

हर कोई बेक़रार है बाबा!
जाने कैसा दयार है बाबा !

जिंदगी तार-तार है बाबा!
मौत का इंतज़ार है बाबा!

आओ मिलजुल के हम चुका डालें
कुछ जमीं का उधार है बाबा!

अब तो कुछ भी नज़र नहीं आता
कैसा गर्दो-गुबार है बाबा!

पूरे होंगे हमारे सपने भी
वक़्त का इंतज़ार है बाबा!

लोग कांटों से रंज रखते हैं
हमको फूलों से खार है बाबा!


-----देवेंद्र गौतम

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

गर यही हद है तो.....

गर यही हद है तो अब हद से गुजर जाने दे.
ए जमीं! मुझको खलाओं में बिखर जाने दे.


रुख हवाओं का बदलना है हमीं को लेकिन
पहले आते हुए तूफाँ को गुज़र जाने दे .


तेरी मर्ज़ी है मेरे दोस्त! बदल ले रस्ता
तुझको चलना था मेरे साथ, मगर जाने दे.


ये गलत है कि सही, बाद में सोचेंगे कभी
पहले चढ़ते हुए दरिया को उतर जाने दे.


हम जमीं वाले युहीं ख़ाक में मिल जाते हैं
आसमां तक कभी अपनी भी नज़र जाने दे.


दिन के ढलते ही खयालों में चला आता है
शाम ढलते ही जो कहता था कि घर जाने दे.


---देवेंद्र गौतम 

थोड़ी हरकत है.....

थोड़ी हरकत है, जान बाकी है.
जिंदगी की उड़ान बाकी है.

सारे कुनबों को दफ्न कर डाला
एक ही खानदान बाकी है.

बस्तियों का सुराग देने को
फूस का इक मकान बाकी है.

कोई राधा तो खिंच के आएगी
अभी बंशी में तान बाकी है.

वक़्त ने भर दिया जरूर मगर
जख्म का इक निशान बाकी है.

उनकी मूछें तो झुक गयीं गौतम
फिर भी कुछ आन-बान बाकी है.

----देवेंद्र गौतम 

बोझ बेमंजरी का

बोझ बेमंजरी का ढोने दे.
खुश्क आखों को कुछ भिंगोने दे.

हम भी चेहरा बदल के निकलेंगे
शाम ढलने दे, रात होने दे.

उसके तलवों में जान आएगी
एक कांटा जरा चुभोने दे.

सब्ज़ हो जाएगी जमीं इक दिन
आसमानों को सुर्ख होने दे.

हर नई बात मान लें कैसे
कुछ रिवाजों का बोझ ढोने दे.


----देवेन्द्र गौतम

आते हुए तूफ़ान को.....

आते हुए तूफ़ान को छूने की जिद न कर.
रहने दे आसमान को छूने की जिद न कर.


रह-रह के टीसता है मेरी उंगलियों का जख्म
अब तीर और कमान को छूने की जिद न कर.


मलवे में दफ्न होंगी किस-किस की ख्वाहिशें
उजड़े हुए मकान को छूने की जिद न कर.


कडवी है कि मीठी है जैसी भी है अपनी है
नाहक मेरी जुबान को छूने की जिद न कर.


तुझको पता है जो कहेंगे झूट कहेंगे
अब गीता और कुरआन को छूने की जिद न कर.


----देवेन्द्र गौतम

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

कुछ रोज आसपास रहे.....

कुछ रोज आसपास रहे, फिर कहां गए. 
खुशरंग जिंदगी के मनाज़िर कहां गए.

बातिन में भी नहीं हैं बज़ाहिर कहां गए.
जिनकी मुझे तलाश है आखिर कहां गए.

महरूमियों के दर पे खड़े सोचते हैं हम 
वो हौसले हयात के आखिर कहां गए.

हर गाम पूछने लगीं सदरंग मंजिलें
बेकैफ रास्तों के मुसाफिर कहां गए.

लज्ज़त-नवाज़ शाख दरख्तों से क्या हुई 
नग्मे सुना रहे थे जो ताइर कहां गए.

आवाज़ आ रही है अभी तक हयात की 
अबके कज़ा-परस्त मुजाविर कहां गए.

जज्बों के नाम पर जो उठाते थे रंजिशें 
बज्मे-जहां से आज वो शाइर कहां गए.

अबतक हिसारे-शह्र में सबकुछ वही तो है  
जो सहर कर रहे थे वो साहिर कहां गए.

हर शख्स बिक रहा है यहां कौड़ियों के मोल
गौतम जो कल तलक थे नवादिर कहां गए. 

---देवेंद्र गौतम

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

उतर चुकें हैं सभी.....

उतर चुकें हैं सभी इस कदर जलालत पर.
कोई सलाख के पीछे कोई जमानत पर.

यहां किसी से उसूलों की बात मत करना
बिका हुआ है हरेक सख्स अपनी कीमत पर.

यकीन मानो कि सूरज पनाह मांगेगा
उतर गया कोई जर्रा अगर बगावत पर.

हुआ यही कि खुद अपना वजूद खो बैठा
वो जिसने दबदबा कायम किया था कुदरत पर.

अब तो इ-मेल पे होती है गुफ्तगू अपनी
 उडाता क्यों है कबूतर कोई मेरी छत पर.

किया भरोसा तो खुद अपने बाजुओं पे किया
हरेक जंग लड़ी हमने अपनी ताक़त पर.

लगा हुआ है अभी दांव पर हमारा वजूद
ये जंग जीतनी होगी किसी भी कीमत पर.


----देवेन्द्र गौतम

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

हादिसा ऐसा.....

हादिसा ऐसा कि हर मौसम यहां खलने लगे.
बारिशों की बात निकले और दिल जलने लगे.

फितरतन मुश्किल था लेकिन जो हमें बख्शा गया
रफ्ता-रफ्ता हम उसी माहौल में ढलने लगे.

काश! ऐसा हो कलम की नोक बन जाये उफक
वक़्त का सूरज मेरी तहरीर में ढलने लगे.

अक्ल की उंगली पकड़ ले, दिल के आंगन से निकल
फिर कोई ख्वाहिश अगर घुटनों के बल चलने लगे.

दो घङ़ी मोहलत न दे ये गर्दिशे-शामो-सहर
राहरौ ठहरे अगर तो रहगुज़र चलने लगे.


----देवेंद्र गौतम  

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

हरेक सांस में......

हरेक सांस में आता है गाम-गाम धुआं.
बदल के रख दो मेरी जिंदगी का नाम धुआं.

बहुत करीब है जैसे घुटन की रात कोई
उड़ा रही है मेरी बेबसी की शाम धुआं.

हरेक सम्त है कुहरा घना जिधर देखो
हुआ है आज तो जैसे कि बेलगाम धुआं.

किसी के अश्क बहे बोझ कम हुआ दिल का
चलो कि आज तो आया किसी के काम धुआं.

कहीं पे बैठ के कुछ दम लगा कि चैन मिले
उड़ा कभी-कभी वहशी जहाँ के नाम धुआं.

वो कौन लोग थे जो खो गए खलाओं में
गरीब जिस्म का है आखरी मुकाम धुआं.

कहां -कहां की फ़ज़ा याद आ गयी गौतम
ब-वक्ते-शाम जो देखा है नंगे-शाम धुआं.

.........देवेंद्र गौतम  

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

पहलू बदलके पूछते हैं......

पहलू बदलके पूछते हैं राहबर से हम.
गाड़ी खड़ी है जाम में निकलें किधर से हम.

संजीवनी की खोज सफल हो चुकी है अब
कमतर दिखाई देंगे कुछ अपनी उमर से हम.

बस्ती के हर मकान की बुनियाद हिल चुकी
अब कितने खाक-ओ-खून पे निकलेंगे घर से हम।

पेचीदगी बहुत है हमारी जुबान में
काटों की बात करते हैं फूलों के डर से हम.

जाओगे दूर मुझसे तो जाओगे तुम कहां
रख लेंगे तुझको बांधके अपनी नज़र से हम.

जिसपर किसी के पांव पड़े हों न आज तक
गुजरेंगे बार-बार उसी रहगुजर से हम.

जिस रोज हमपे खुल गयी असरारे-जिंदगी
दुनिया को देखने लगे अपनी नज़र से हम.

कोई खुली किताब सा आया है सामने
पन्ने पलट के चाहें अब पढ़ लें जिधर की हम.

........देवेंद्र गौतम