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शनिवार, 25 जून 2011

फिर उमीदों का नया दीप....

फिर उमीदों का नया दीप जला रक्खा  है.
हमने मिटटी के घरौंदे को सजा रक्खा  है.

खुश्क आंखों पे न जाओ कि तुम्हें क्या मालूम
हमने दरियाओं को सहरा में छुपा रक्खा है. 


रविवार, 19 जून 2011

ताजगी की इक इबारत.......

ताजगी की इक इबारत और क्या.   
मेरी बस इतनी सी चाहत और क्या.

बैठे-बैठे लिख रहा होगा खुदा
हम सभी लोगों की किस्मत और क्या.


मंगलवार, 14 जून 2011

हमें इस दौर के एक एक लम्हे से.....


हमें इस दौर के एक एक लम्हे से उलझना था.
मगर आखिर कभी तो एक न एक सांचे में ढलना था.

वहीं दोज़ख के शोलों में जलाकर राख कर देता
ख़ुशी का एक भी लम्हा अगर मुझको न देना था.


सिलसिला रुक जाये शायद.....

सिलसिला रुक जाये शायद आपसी तकरार का.
रुख अगर हम मोड़ दें बहती नदी की धार का.

जब तलक सर पे हमारे छत सियासत की रहेगी
टूटना मुमकिन नहीं होगा किसी दीवार का.

मार्क्स, गांधी, लोहिया, सुकरात, रूसो, काफ्का
सबपे भारी पड़ रहा है फलसफा बाज़ार का.


ज़मीं की खाक में......

ज़मीं की खाक में देखा गया है.
परिंदा जो बहुत ऊंचा उड़ा है.

हवा का काफिला ठहरा हुआ है.
फ़ज़ा के सर पे सन्नाटा जड़ा है.

मरासिम टूटने के बाद अक्सर
तआल्लुक और भी गहरा हुआ है.


रेज़ा-रेज़ा बिखर रहे हैं हम.

रेज़ा-रेज़ा बिखर रहे हैं हम.
अब तो हद से गुज़र रहे हैं हम.

एक छोटे से घर की हसरत में
मुद्दतों दर-ब-दर रहे हैं हम.


गुरुवार, 9 जून 2011

क्या ढोते बेकार के रिश्ते.

("OBO लाइव महा उत्सव" अंक ८...में प्रस्तुत)

तोड़ दिए संसार के रिश्ते. 
क्या ढोते बेकार के रिश्ते.

स्वर्ग-नर्क के बीच मिलेंगे 
इस पापी संसार के रिश्ते.

रोज तराजू में तुलते हैं
बस्ती और बाज़ार के रिश्ते.


शनिवार, 4 जून 2011

हवा में उड़ रहा है आशियाना

हवा में उड़ रहा है आशियाना.
परिंदे का नहीं कोई ठिकाना.

हमेशा चूक हो जाती है हमसे
सही लगता नहीं कोई निशाना.

अभी सहरा में लाना है समंदर
अभी पत्थर पे है सब्ज़ा उगाना.

जिसे आंखों ने देखा सच वही है
किसी की बात में बिल्कुल न आना.