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बुधवार, 28 नवंबर 2012

काटने लगता है अपना ही मकां शाम के बाद

यूं  तेरी यादों की कश्ती है रवां शाम के बाद.
जैसे वीरान जज़ीरे में धुआं शाम के बाद.

चंद लम्हे जो तेरे साथ गुजारे थे  कभी
ढूंढ़ता हूं उन्हीं लम्हों के निशां शाम के बाद.

एक-एक करके हरेक जख्म उभर आता है
दिल के जज़्बात भी होते हैं जवां शाम के बाद.

कभी माज़ी कभी फर्दा की कसक उठती है
काटने लगता है अपना ही मकां शाम के बाद.

बारहा दिन में उभर आता है तारों का निजाम
बारहा सुब्ह का होता है  गुमां शाम के बाद.

मेरे होठों पे बहरहाल खमोशी ही रही
लोग कहते हैं कि खुलती है ज़बां शाम के बाद.

----देवेंद्र गौतम

मंगलवार, 20 नवंबर 2012

हम डूबते सूरज की इबादत नहीं करते

कितना भी लाल पीला हो सोहबत नहीं करते.
हम डूबते सूरज की इबादत नहीं करते.

इस दर्ज़ा तो ऐ दोस्त! हिमाक़त नहीं करते.
सूरज से जुगनुओं की तिजारत नहीं करते.

इतना दबे हुए हैं किताबों के बोझ से
इस दौर के बच्चे भी शरारत नहीं करते.

रह जाते हैं सब खूबियां अपनी समेटकर
जो लोग अपने फन की तिजारत नहीं करते.

जो लोग आप लिखते हैं किस्मत की इबारत
हांथों की लकीरों की शिकायत नहीं करते.

बागी जिन्हें समझती है दुनिया वो दरअसल
मिल-बांट के खाते हैं बगावत नहीं करते.

फिर क्यों न मानते वो हमारी हरेक बात
हम कर के दिखाते हैं नसीहत नहीं करते.

----देवेंद्र गौतम

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

उठते-उठते उठता है तूफ़ान कोई

हैवानों की बस्ती में इंसान कोई.
भूले भटके आ पहुंचा नादान कोई.

कहां गए वो कव्वे जो बतलाते थे
घर में आनेवाला है मेहमान कोई.

जाने क्यों जाना-पहचाना लगता है
जब भी मिलता है मुझको अनजान कोई.

इस तर्ह बेचैन है अपना मन जैसे
दरिया की तह में उठता तूफ़ान कोई.

अपनी जेब टटोल के देखो क्या कुछ है
घटा हुआ है फिर घर में सामान कोई.

धीरे-धीरे गर्मी सर पे चढ़ती है
उठते-उठते उठता है तूफ़ान कोई.

कितना मुश्किल होता है पूरा करना
काम अगर मिल जाता है आसान कोई.

सबसे कटकर जीना कोई जीना है
मिल-जुल कर रहने में है अपमान कोई?

उसके आगे मर्ज़ी किसकी चलती है
किस्मत से भी होता है बलवान कोई?

--देवेंद्र गौतम