समर्थक

रविवार, 21 अप्रैल 2013

वो दूर बैठ के कठपुतलियां नचाते हैं

उबाल खाते हैं फिर बर्फ सा जम जाते हैं.
ये लोग जंगे-मुसलसल कहां चलाते हैं.

हम इंकलाब के नारे बहुत लगाते हैं.
फिर अपने-अपने घरौंदे में लौट आते हैं.

किसी के सामने खुलकर कभी नहीं आते
वो दूर बैठ के कठपुतलियां नचाते हैं.

किसी की शक्ल को पहचानता नहीं कोई
तमाम लोग नक़ाबों में पाये जाते हैं.

अजीब रंग के खा़ना-बदोश हैं हम भी
जहां जगह मिली चादर वहीं बिछाते हैं.

अंधेरे घर पे किसी की नजर नहीं जाती
सब आफताब के आगे दीया जलाते हैं.

नज़र-नवाज़ नजारे नज़र नहीं आते
हमारी आंख के परदे भी झिलमिलाते हैं.

---देवेंद्र गौतम