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रविवार, 28 फ़रवरी 2016

मैं थककर अगर तेरी बाहों में आऊं.

फुगाओं से निकलूं तो आहों में आऊं.
कदम-दर-कदम बेपनाहों में आऊं.

मैं चेहरों के जंगल में खोया हुआ हूं
मैं कैसे तुम्हारी निगाहों में आऊं.

कभी मैं अंधेरों की बाहें टटोलूं
कभी रौशनी की पनाहों में आऊं.

मैं इक सनसनीखेज़ किस्सा हूं गौया
शराफत से निकलूं गुनाहों में आऊं.

अभी तक तो पगडंडियों पे कटी है
किसी रोज तो शाहराहों में आऊं.

कभी मरघटों में मिलूं आग बनकर
कभी बर्फ की कब्रगाहों में आऊं.

पहाड़ों मुझे थाम लेना किसी दिन
मैं थककर अगर तेरी बाहों में आऊं.

-देवेंद्र गौतम

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

फिर इतिहास भुला बैठे.

(जेएनयू प्रकरण पर)
तिल का ताड़ बना बैठे.
कैसी आग लगा बैठे.

वही खता दुहरा बैठे.
फिर इतिहास भुला बैठे.

फर्क दोस्त और दुश्मन का
कैसे आप भुला बैठे.

पुरखों के दामन में वो
गहरा दाग लगा बैठे.

सबका हवन कराने में
अपने हाथ जला बैठे.

उसकी गरिमा रख लीजे
जिस कुर्सी पर जा बैठे.

बैठे-बैठे वो हमको
कितने ख्वाब दिखा बैठे.

किस दुनिया के वासी हैं
किस दुनिया में जा बैठे.

सारी रामायण कह दी
असली बात भुला बैठे.

-देवेंद्र गौतम

रविवार, 7 फ़रवरी 2016

धूप जैसे चांदनी रातों में हो घुलती हुई सी.

  उलझनों की धुंद सबके ज़ेहन में फैली हुई सी.
वक़्त की गहराइयों में ज़िंदगी उतरी हुई सी.

हर कोई अपनी हवस की आग में जलता हुआ सा
और कुछ इंसानियत की रूह भी भटकी हुई सी.

आपकी यादें फज़ा में यूं हरारत भर रही हैं
धूप जैसे चांदनी रातों में हो घुलती हुई सी.

बर्फ से जमते हुए माहौल के अंदर कहीं पर
एक चिनगारी भड़कने के लिए रखी हुई सी.

रोजो-शब के पेंचो-खम का ये करिश्मा भी अजब है
हम वही, तुम भी वही, दुनिया मगर बदली हुई सी.

चार-सू तारीक़ लम्हों का अजब सैले-रवां है
रौशनी जिसमें की सदियों से है सिमटी हुई सी.

जा-ब-जा वहमो-गुमां के तुंद झोंके मौज़ेजन से
और अब अपने यकीं की नींव भी हिलती हुई सी.

फिर ख़यालों की बरहना शाख पे पत्ते उगे हैं
फिर मेरे दिल में है इक नन्हीं कली खिलती हुई सी.

-देवेंद्र गौतम


सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

इस सफर में मेरे पीछे इक सदी रह जाएगी.

रहगुजर पे रहबरों की रहबरी रह जाएगी.
ज़िंदगी फिर ज़िंदगी को ढूंढती रह जाएगी.

मैं चला जाउंगा अपनी प्यास होठों पर लिए
मुद्दतों दरिया में लेकिन खलबली रह जाएगी.

रौशनी की बारिशें हर सम्त से होंगी मगर
मेरी आंखों में फरोजां तीरगी रह जाएगी.

हर कदम पर मैं बिखर जाउंगा राहों की तरह
इस सफर में मुझको मंजिल ढूंढती रह जाएगी.

दिन के आंगन में सजीली धूप रौशन हो न हो
रात के दर पर शिकस्ता चांदनी रह जाएगी.

हमको दुनिया भर की दौलत भी मयस्सर हो तो क्या
ज़िंदगी में कुछ न कुछ फिर भी कमी रह जाएगी.

झिलमिलाती साअतों की रहगुजर पे मुद्दतों
रौशनी शामो-सहर की कांपती रह जाएगी.

लम्हा-लम्हा बेसबब होते रहेंगे रोजो-शब
इस सफर में मेरे पीछे इक सदी रह जाएगी.

-देवेंद्र गौतम