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मंगलवार, 5 सितंबर 2017

रह गए सारे कलंदर इक तरफ

वक्त के सारे सिकंदर इक तरफ.
इक तरफ सहरा, समंदर इक तरफ.

इक तरफ तदबीर की बाजीगरी
और इंसां का मुकद्दर इक तरफ.

आस्मां को छू लिया इक शख्स ने
रह गए सारे कलंदर  इक तरफ.

इक तरफ लंबे लिफाफों का सफर
पांव से छोटी है चादर इक तरफ.

इक तरफ खुलती हुई नज्जारगी
डूबते लम्हों का लश्कर  इक तरफ.

रोज हम करते हैं बातें अम्न की
रोज उठता है बवंडर इक तरफ.

-देवेंद्र गौतम


शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

सर पटककर रह गए दीवार में.

जो यकीं रखते नहीं घरबार में.
उनकी बातें किसलिए बेकार में.

दर खुला, न कोई खिड़की ही खुली
सर पटककर रह गए दीवार में.

बस्तियां सूनी नज़र आने लगीं
आदमी गुम हो गया बाजार में.

पांव ने जिस दिन जमीं को छू लिया
ज़िंदगी भी आ गई रफ्तार में.

बांधकर रखा नहीं होता अगर
हम भटक जाते किसी के प्यार में.

एक बाजी खेलकर जाना यही
जीत से ज्यादा मज़ा है हार में.

शनिवार, 26 अगस्त 2017

बस मियां की दौड़ मस्जिद तक न हो.

चाल वो चलिए किसी को शक न हो.
बस मियां की दौड़ मस्जिद तक न हो.

सल्तनत आराम से चलती नहीं
सरफिरा जबतक कोई शासक न हो.

सांस लेने की इजाजत हो, भले
ज़िंदगी पर हर किसी का हक न हो.

खुश्क फूलों की अदावत के लिए
एक पत्थर हो मगर चकमक न हो.

रंग काला हो, कोई परवा नहीं
हाथ में उसके मगर मस्तक न हो.

तब तलक मत लाइए मैदान में
जब तलक वो दौड़ने लायक न हो.

-देवेंद्र गौतम










मंगलवार, 15 अगस्त 2017

दोनों तरफ के लोग हैं जिद पर अड़े हुए

हम उनकी उंगलियों में थे कब से पड़े हुए.
कागज में दर्ज हो गए तो आंकड़े हुए.

ऊंची इमारतों में कहीं दफ्न हो गईं
वो गलियां जिनमें खेलके हम तुम बड़े हुए.

मुस्किल है कोई बीच का रस्ता निकल सके
दोनों तरफ के लोग हैं जिद पर अड़े हुए.

दरिया में थे तो हम सभी कश्ती की तरह थे
मिट्टी के पास आ गए तो फावड़े हुए.

हमने ज़मीं को सींच दिया अपने लहू से
कुछ लोग जंग जीत गए बिन लड़े हुए.

घुटनों में बल नहीं था मगर हौसला तो था
पूछो, हम अपने पांव पे कैसे खड़े हुए.

तख्ती पे था लिखा हुआ दस्तक न दे कोई
जैसे कि उनके दर पे हों हीरे जड़े हुए.

-देवेंद्र गौतम