समर्थक

मंगलवार, 14 मई 2013

वो अपने आठ पहर में से दोपहर ही दे

हवा के दोश पे उड़ता हुआ शरर ही दे.
वो कुछ न दे तो तमाजत का इक सफर ही दे

वो मौज दे नहीं सकता, न दे, भंवर ही दे.
करीब आके ये किस्सा तमाम कर ही दे.

न अपना हाल बताये, न मेरा हाल सुने
न अपने ठौर ठिकाने की कुछ खबर ही दे.

मेरे रुके हुए कदमों का वास्ता है तुझे
जहां पे लोग भटकते हैं वो डगर ही दे.

मैं पूरे दिन पे कभी हक नहीं जताउंगा
वो अपने आठ पहर में से दोपहर ही दे.

मेरी उमीद का गुलशन उजड़ नहीं पाये
हरेक बीज के अंदर कोई शजर ही दे.

अब उसकी सल्तनत में सर कहां छुपाये हम
हमें न रहने दे फुटपाथ पे न घर ही दे.

मैं उससे चांद सितारे तो नहीं मांगूंगा
बस एक बार इनायत भरी नजर ही दे.

--देवेंद्र गौतम