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गुरुवार, 17 मार्च 2011

सहने-दिल में.....

सहने-दिल में दर्दो-गम की खुशनुमा काई कहां.
अब हमारे पास जज्बों की वो गहराई कहां.


हर तरफ बे-रह-रवी है, हर तरफ है शोरो-गुल
इस शिकस्ता शहर में मिलती है तन्हाई कहां.


कोई अपना हो तो खुद आकर के मिल जाये के अब
अजनवी लोगों में हम ढूंढें शनासाई कहां.


सामने सबकुछ है लेकिन कुछ नज़र आता नहीं
बेखयाली ले गयी आंखों से बीनाई कहां.


रात गहरी हो चुकी तो हू का आलम तोड़कर
फिर ख़यालों में मेरे बजती  है शहनाई कहां.


हर कदम पे मौत की तारीकियां हैं मौजज़न
जिन्दगी आखिर मुझे अबके उठा लाई कहां.


लोग चाहे कुछ कहें लेकिन हकीकत है यही
खुद्फरेबी है अभी हम सब में सच्चाई कहां.


---देवेंद्र गौतम