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रविवार, 10 मार्च 2013

चलते-चलते सूई घडी की रुक जाती है

दम लेने को एक ठिकाना ढूँढ रही है.
अपनी गाड़ी जाने कब से बेपटरी है.

हमने बांध लिया है सारी नदियों को
इसीलिए जीवन की नैया डूब रही है.

बस जायें जिस देस में लेकिन कुछ नस्लों तक
अपनी मिटटी की खुशबू बाकी रहती है.

बेमकसद परदेस की खाक नहीं छानी
हमने अपनी मिटटी की खुशबू बांटी है.

उन आंखों ने ख्वाब बहुत देखे होंगे
जिन आंखों में 'नीर भरी दुःख की बदली' है.

अपने दिल की धड़कन पर काबू रखना
चलते-चलते सूई घडी की रुक जाती है.

खून रगों में दौड़ रहा है कुछ ऐसे
जिस्म के अंदर जैसे एक नदी बहती है.

आवारा बादल मंडराते रहते हैं
धरती अपने मरकज़ पर कायम रहती है.

मतलब की दुनिया है गौतम, क्या समझे!
हर नेकी में पोशीदा थोड़ी सी बदी है.

---देवेंद्र गौतम