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रविवार, 17 अप्रैल 2011

अजीब ख्वाहिशों का ज़लज़ला है....

अजीब ख्वाहिशों का ज़लज़ला है घर-घर में.
किसी के पांव सिमटते नहीं हैं चादर में.

मैं ऐसा अब्र के जो आजतक भटकता हूं
वो एक नदी थी के जो मिल गयी समंदर में.