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रविवार, 30 जनवरी 2022

मकीं को ढूंढते खाली मकान हैं साहब!

शिकारी जा चुके लेकिन मचान हैं साहब!

मकीं को ढूंढते खाली मकान हैं साहब!

 

वो जिनको तीर चलाने का फन नहीं आता

उन्हीं के हाथ में सारे कमान हैं साहब!

 

जो बोल सकते थे अपनी ज़ुबान बेच चुके

जो बेज़ुबान थे वो बेज़ुबान हैं साहब!

 

हमारी बात अदालत तलक नहीं पहुंची

जो दर्ज हो न सके वे बयान हैं साहब!

 

बस उनके खून-पसीने की कमाई दे दो

ज़मीं को सींचने वाले किसान हैं साहब!

 

जड़ों से उखड़ा हुआ पेड़ हूं मगर अबतक

मेरे वजूद के कुछ तो निशान हैं साहब!

-देवेंद्र गौतम


शनिवार, 22 जनवरी 2022

बस एक फूंक में जलता दिया बुझा डाला

 

बस एक फूंक में जलता दिया बुझा डाला.

जो इक निशान उजाले का था मिटा डाला.

 

उसके पुरखों ने बनाया था उसी की खातिर

उसे पता भी है, किसका मकां जला डाला?

 

लगाई आग जो उसने तो शिकायत कैसी

जो देखने की तमन्ना थी वो दिखा डाला.

 

हमारी साख बची है अभी तो ग़म क्या है

बढ़ा है कर्ज मगर ब्याज तो चुका डाला.

 

तमाशबीन की पलकें ठहर गईं गौतम

ऐसा बंदर था मदारी को ही नचा डाला.

-देवेंद्र गौतम

रविवार, 9 जनवरी 2022

कत्आ

 

एक कत्आ

फूलों के पहलू में बैठे खंजर थे

चंदन के पेड़ों से लिपटे विषधर थे.

कितने जहरीले थे हमसे मत पूछो

जितना बाहर थे उतना ही अंदर थे.

-देवेंद्र गौतम