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सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

दरो-दीवार पे अब.....

दरो-दीवार पे अब कोई इबारत न रही.
जिसकी तामीर हुई थी वो इमारत  न रही.


दिल के रिश्ते न रहे, दर्द की हिक़मत न रही.
अब यहां मिलने-मिलाने की रवायत न रही.


इक बयाबां मेरे अंदर ही सिमट आया है
अब कहीं दूर भटकने की ज़रुरत न रही.


जबसे हासिल हुआ गुमगश्ता ठिकानों का पता
अपने हाथों की लकीरों से शिकायत न रही.


वही अशआर तो तारीख़ में रौशन होंगे
जिनसे लिपटी हुई जंजीरे-रवायत न रही.


ये कोई जिंस नहीं जिसके खरीदार मिलें
आज बाज़ार में अहसास की कीमत न रही.


.जबसे निकला हूं रेफाक़त के खंडर से गौतम
अब मुझे अपने रफ़ीक़ों की ज़रूरत न रही.


----देवेन्द्र गौतम