(यह ग़ज़ल 28 से 30 मई तक openbooksonline.com पर आयोजित obo लाइव तरही मुशायरा, अंक-11 के लिए कही थी. तरह थी-'जरा सी जिद ने इस आंगन का बंटवारा कराया है.' काफिया-आ, रदीफ़-कराया है.)
समंदर और सुनामी का कभी रिश्ता कराया है?
कभी सहरा ने गहराई का अंदाज़ा कराया है?
न जाने कौन है जिसने यहां बलवा कराया है.
हमारी मौत का खुद हमसे ही सौदा कराया है.
फकत इंसान का इंसान से झगड़ा कराया है.
बता देते हैं हम कि आपने क्या-क्या कराया है.