कुछ रोज आसपास रहे, फिर कहां गए.
खुशरंग जिंदगी के मनाज़िर कहां गए.
बातिन में भी नहीं हैं बज़ाहिर कहां गए.
जिनकी मुझे तलाश है आखिर कहां गए.
महरूमियों के दर पे खड़े सोचते हैं हम
वो हौसले हयात के आखिर कहां गए.
हर गाम पूछने लगीं सदरंग मंजिलें
बेकैफ रास्तों के मुसाफिर कहां गए.
लज्ज़त-नवाज़ शाख दरख्तों से क्या हुई
नग्मे सुना रहे थे जो ताइर कहां गए.
आवाज़ आ रही है अभी तक हयात की
अबके कज़ा-परस्त मुजाविर कहां गए.
जज्बों के नाम पर जो उठाते थे रंजिशें
बज्मे-जहां से आज वो शाइर कहां गए.
अबतक हिसारे-शह्र में सबकुछ वही तो है
जो सहर कर रहे थे वो साहिर कहां गए.
हर शख्स बिक रहा है यहां कौड़ियों के मोल
गौतम जो कल तलक थे नवादिर कहां गए.
---देवेंद्र गौतम