समर्थक

गुरुवार, 31 मार्च 2011

अपने जैसों की मेजबानी में

अपने जैसों की मेजबानी में.
लुत्फ़ आता है लामकानी में.


हर सुखनवर है अब रवानी में.
कुछ नई बात है कहानी में.


उसने सदियों की दास्तां कह दी
एक लम्हे की बेज़ुबानी में.



ख्वाहिशों के जिस्मो-जां की.....

(यह ग़ज़ल 1979  में कही थी. हिंदी और उर्दू की कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थी और आकाशवाणी पटना से कलामे-शायर के तहत  इसका प्रसारण भी हुआ था.)

ख्वाहिशों के जिस्मो-जां की बेलिबासी देख ले. 
काश! वो आकर कभी मेरी उदासी देख ले.  

कल मेरे अहसास की जिंदादिली भी देखना
आज तो मेरे जुनूं की बदहवासी देख ले.

हर तरफ फैला हुआ है गर्मपोशी का हिसार 
वक़्त के ठिठुरे बदन की कमलिबासी देख ले.

आस्मां से बादलों के काफिले रुखसत हुए
फिर ज़मीं पे रह गयी हर चीज़ प्यासी देख ले.

और क्या इस शहर में है देखने के वास्ते
जा-ब-जा बिखरे हुए मंज़र सियासी देख ले.

वहशतों की खाक है चारो तरफ फैली हुई 
आदमी अबतक है जंगल का निवासी देख ले.

एक नई तहजीब उभरेगी इसी माहौल से
लोग कहते हैं कि गौतम सन उनासी देख ले.   


---देवेंद्र गौतम