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सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

पहलू बदलके पूछते हैं......

पहलू बदलके पूछते हैं राहबर से हम.
गाड़ी खड़ी है जाम में निकलें किधर से हम.

संजीवनी की खोज सफल हो चुकी है अब
कमतर दिखाई देंगे कुछ अपनी उमर से हम.

बस्ती के हर मकान की बुनियाद हिल चुकी
अब कितने खाक-ओ-खून पे निकलेंगे घर से हम।

पेचीदगी बहुत है हमारी जुबान में
काटों की बात करते हैं फूलों के डर से हम.

जाओगे दूर मुझसे तो जाओगे तुम कहां
रख लेंगे तुझको बांधके अपनी नज़र से हम.

जिसपर किसी के पांव पड़े हों न आज तक
गुजरेंगे बार-बार उसी रहगुजर से हम.

जिस रोज हमपे खुल गयी असरारे-जिंदगी
दुनिया को देखने लगे अपनी नज़र से हम.

कोई खुली किताब सा आया है सामने
पन्ने पलट के चाहें अब पढ़ लें जिधर की हम.

........देवेंद्र गौतम