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रविवार, 23 जनवरी 2011

यही खाना-ब -दोशी है.....

यही खाना-ब -दोशी है, इसे बेहतर समझ लेना.
जहां रुकना, जहां टिकना, उसी को घर समझ लेना.


मेरे अन्दर है कितना मौसमों का डर, समझ लेना.
मैं फूलों का मुहाफ़िज़ हूं, मुझे पत्थर समझ लेना.


कभी घर में ही बन जाता है दफ्तर, यूं भी होता है.
कभी दफ्तर को ही पड़ता है अपना घर समझ लेना.


जहां तक फ़ैल सकते हैं, तुम अपने पाओं फैलाओ
मगर फैलेगी कितना अक्ल की चादर समझ लेना


---देवेंद्र गौतम .