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मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

ज़मीं की तह में अभी तक हैं जलजले रौशन

जो अपना नाम किसी फन में कर गए रौशन.
उन्हीं के नक्शे-कदम पर हैं काफिले रौशन.

ये कैसे दौर से यारब, गुजर रहे हैं हम
न आज चेहरों पे रौनक न आइने रौशन.

किसी वरक़ पे हमें कुछ नजऱ न आएगा
किताबे-वक्त में जब होंगे हाशिये रौशन

हवेलियों पे तो सबकी निगाह रहती है
किसी गरीब की कुटिया कोई करे रौशन.

हरेक सम्त अंधेरों की सल्तनत है मगर
दिलों में फिर भी उमीदों के हैं दिये रौशन.

हमारे पांव तो कबके उखड़ चुके हैं मगर
ज़मीं की तह में अभी तक हैं जलजले रौशन

सवाल सबके भरोसे का है मेरे भाई
कलम संभाल अंधेरे को जो लिखे रौशन.
--देवेंद्र गौतम