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रविवार, 18 अक्तूबर 2015

हमको जिसका मलाल था क्या था

कोई सुर था न ताल था क्या था
बेख़ुदी का धमाल था क्या था
ख्वाब था या खयाल था क्या था
हमको जिसका मलाल था क्या था
तुमने पत्थर कहा, खुदा हमने
अपना-अपना ख़याल था क्या था
आग भड़की तो किस तरह भड़की
जेहनो-दिल में उबाल था क्या था
सारे किरदार एक जैसे थे
हर कोई बेमिसाल था क्या था
मौत को हम गले लगा बैठे
ज़िन्दगी का सवाल था क्या था
रास्ते बंद हो चुके थे क्या
आना-जाना मुहाल था क्या था
जिससे रफ़्तार की तवक़्क़ो थी
काले घोड़े की नाल था क्या था
कोई बाज़ी लगी थी आपस में
या कि सिक्का उछाल था क्या था
देवेन्द्र गौतम 08860843164

बुधवार, 22 जुलाई 2015

मन की गहराई का अंदाजा न था.

मन की गहराई का अंदाजा न था.
डूबकर रह जायेंगे, सोचा न था.

कितने दरवाज़े थे, कितनी खिड़कियां
आपने घर ही मेरा देखा न था                                                    

एक दुल्हन की तरह थी ज़िन्दगी
गोद में उसके मगर बच्चा न था.                                                            

इक कटीली झाड़ थी चारों तरफ
बस ग़नीमत है कि मैं उलझा न था.

बारहा मुझको तपाता था बहुत
एक सूरज जो कभी निकला न था.

पेड़ का हिस्सा था मैं भी दोस्तो
मैं कोई टूटा हुआ पत्ता न था.

दूसरों के दाग़ दिखलाता था जो
उसका दामन भी बहुत उजला न था.

-देवेंद्र गौतम

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

आप परछाईं से लड़ते ही नहीं.

मसअ़ले अपने सुलझते ही नहीं.
पेंच इतने हैं कि खुलते ही नहीं.

हम कसीदे पर कसीदे पढ़ रहे हैं
आप पत्थर हैं पिघलते ही नहीं.

लोग आंखों की जबां पढ़ने लगे हैं
कोई बहकाये बहकते ही नहीं.

बात कड़वी है, मगर सच है यही
जो गरजते हैं, बरसते ही नहीं.

चार अक्षर पढ़ के आलिम हो गये
पांचवा अक्षर समझते ही नहीं.

दर्दो-ग़म का शर्तिया होता इलाज
हम मगर हद से गुजरते ही नहीं.

कुछ उजाले का भरम तो टूटता
आप परछाईं से लड़ते ही नहीं.

बेसबब करते हैं मिसरे पे बहस
लफ्ज से आगे निकलते ही नहीं.

एक खेमे में रहे हैं आजतक
हम कभी  करवट बदलते ही नहीं.

-देवेंद्र गौतम





बुधवार, 1 जुलाई 2015

न काफिलों की चाहतें न गर्द की, गुबार की

न नौसबा की बात है, न ये किसी बयार की
ये दास्तान है नजर पे रौशनी के वार की
किसी को चैन ही नहीं ये क्या अजीब दौर है
तमाम लोग लड़ रहे हैं जंग जीत-हार की
न मंजिलों की जुस्तजू, न हमसफर की आरजू
न काफिलों की चाहतें न गर्द की, गुबार की
जहां तलक है दस्तरस वहीं तलक हैं हासिलें
न कोशिशों की बात है न बात अख्तियार की
हमारे पास तीरगी को चीर के चली किरन
तुम्हारे पास रौशनी तो है मगर उधार की
मुसाफिरों के हौसले पे बर्फ फेरता रहा
कहानियां सुना-सुना के वो नदी की धार की
देवेंद्र गौतम 08527149133 

बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

खुश्क पत्तों सा बिखर जाना है

हर तलातुम से गुज़र जाना है
दिल के दरिया में उतर जाना है
ज़िंदा रहना है कि मर जाना है
‘आज हर हद से गुज़र जाना है’
मौत की यार हक़ीक़त है यही
बस ये अहसास का मर जाना है
पेड़ से टूट गए हैं जैसे
खुश्क पत्तों सा बिखर जाना है
सब ज़मींदोज़ उभर आये हैं
अब दुआओं का असर जाना है
वादा करना तो अदा है उनकी
वक़्त आने पे मुकर जाना है
सर खपाने से नहीं होता कुछ
जो गुज़रना है गुज़र जाना है
वक़्त के आइना दिखलाते ही
रंग चेहरे का उतर जाना है
हम तो आवारा हैं ‘गौतम’ साहब
आप कहिये कि किधर जाना है
-देवेन्द्र गौतम

बुधवार, 7 जनवरी 2015

ज़िंदगी मेरा बुरा चाहती है

और जीने की रज़ा चाहती है
ज़िंदगी मेरा बुरा चाहती है

आंधियों से न बचाये जायें
जिन चराग़ों को हवा चाहती है

सर झुकाये तो खड़ा है हर पेड़
और क्या बादे-सबा चाहती है

बंद कमरे की उमस किस दरजा
हर झरोखे की हवा चाहती है

मेरी तकलीफ़ बिछड़ कर मुझसे
मुझको पहले से सिवा चाहती है

--देवेंद्र गौतम