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शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

गर यही हद है तो.....

गर यही हद है तो अब हद से गुजर जाने दे.
ए जमीं! मुझको खलाओं में बिखर जाने दे.


रुख हवाओं का बदलना है हमीं को लेकिन
पहले आते हुए तूफाँ को गुज़र जाने दे .


तेरी मर्ज़ी है मेरे दोस्त! बदल ले रस्ता
तुझको चलना था मेरे साथ, मगर जाने दे.


ये गलत है कि सही, बाद में सोचेंगे कभी
पहले चढ़ते हुए दरिया को उतर जाने दे.


हम जमीं वाले युहीं ख़ाक में मिल जाते हैं
आसमां तक कभी अपनी भी नज़र जाने दे.


दिन के ढलते ही खयालों में चला आता है
शाम ढलते ही जो कहता था कि घर जाने दे.


---देवेंद्र गौतम 

थोड़ी हरकत है.....

थोड़ी हरकत है, जान बाकी है.
जिंदगी की उड़ान बाकी है.

सारे कुनबों को दफ्न कर डाला
एक ही खानदान बाकी है.

बस्तियों का सुराग देने को
फूस का इक मकान बाकी है.

कोई राधा तो खिंच के आएगी
अभी बंशी में तान बाकी है.

वक़्त ने भर दिया जरूर मगर
जख्म का इक निशान बाकी है.

उनकी मूछें तो झुक गयीं गौतम
फिर भी कुछ आन-बान बाकी है.

----देवेंद्र गौतम 

बोझ बेमंजरी का

बोझ बेमंजरी का ढोने दे.
खुश्क आखों को कुछ भिंगोने दे.

हम भी चेहरा बदल के निकलेंगे
शाम ढलने दे, रात होने दे.

उसके तलवों में जान आएगी
एक कांटा जरा चुभोने दे.

सब्ज़ हो जाएगी जमीं इक दिन
आसमानों को सुर्ख होने दे.

हर नई बात मान लें कैसे
कुछ रिवाजों का बोझ ढोने दे.


----देवेन्द्र गौतम

आते हुए तूफ़ान को.....

आते हुए तूफ़ान को छूने की जिद न कर.
रहने दे आसमान को छूने की जिद न कर.


रह-रह के टीसता है मेरी उंगलियों का जख्म
अब तीर और कमान को छूने की जिद न कर.


मलवे में दफ्न होंगी किस-किस की ख्वाहिशें
उजड़े हुए मकान को छूने की जिद न कर.


कडवी है कि मीठी है जैसी भी है अपनी है
नाहक मेरी जुबान को छूने की जिद न कर.


तुझको पता है जो कहेंगे झूट कहेंगे
अब गीता और कुरआन को छूने की जिद न कर.


----देवेन्द्र गौतम