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गुरुवार, 10 मार्च 2011

ग़मों के मोड़ पे वो बेक़रार.......

ग़मों के मोड़ पे वो बेक़रार था कितना.
किसी ख़ुशी का उसे इंतजार था कितना.


जो अपने आपको बागी करार देते थे
उन्हीं के सर पे रिवाजों का भार था कितना.


दिलों से दर्द के कांटे समेट लेता था
हरेक शख्स का वो गमगुसार था कितना.


यकीन टूट के बिखरा तो शर्मसार हुए
के हमको वहम प ही ऐतबार था कितना.


कफे-सुकूत से जो मुद्दतों निकल न सकी
उसी जबां पे मुझे ऐतबार था कितना.


शिकस्ता जां को रकाबत की आंच देता था
उसे भी अपने रफीकों से प्यार था कितना.


हवाए-कुर्ब से पाकीजगी बिखर न सकी
मेरी हवस पे तेरा अख्तियार था कितना.


हवा-ए-तुंद  का दामन भी भर गया गौतम
हमारे-ज़ेहन में अबके गुबार था कितना.


----देवेंद्र गौतम