हरेक बाब में सूरज ही लामकां निकला.
किताबे-सुब्ह का हर लफ्ज़ रायगां निकला.ये खामुशी भी तो खुद इक जुबान होती है
मेरे सुकूत के अन्दर मेरा बयां निकला.
किसी का क़त्ल हुआ और मैं लरज़ उट्ठा
कहां पे आग लगी और कहां धुआं निकला.
मेरा रफीक था, दुश्मन समझ रहा था जिसे
मैं अपने आप में किस दर्ज़ा बदगुमां निकला.
मैं अबके नींद के आगोश में नहीं फिर भी
मेरी तलाश में ख्वाबों का कारवां निकला.
अजीब बोझ था मुझपर मेरे ख्यालों का
जमीं लरजती रही मैं जहाँ-जहाँ निकला.
खुदा का शुक्र है कोई कमी नहीं गौतम
बस इक खुलूस से खाली मेरा मकां निकला.
मेरा रफीक था, दुश्मन समझ रहा था जिसे
मैं अपने आप में किस दर्ज़ा बदगुमां निकला.
मैं अबके नींद के आगोश में नहीं फिर भी
मेरी तलाश में ख्वाबों का कारवां निकला.
अजीब बोझ था मुझपर मेरे ख्यालों का
जमीं लरजती रही मैं जहाँ-जहाँ निकला.
खुदा का शुक्र है कोई कमी नहीं गौतम
बस इक खुलूस से खाली मेरा मकां निकला.
----देवेंद्र गौतम