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बुधवार, 2 मार्च 2011

उजड़े हुए खुलूस का.....

उजड़े हुए खुलूस का मंज़र करीब है.
यानी अब इस जगह से मेरा घर करीब है.


जिन हादसों ने मोम को पत्थर बना दिया
उन हादसों की आंच मुक़र्रर करीब है.


लिपटी हुई हैं बर्फ की चादर में ख्वाहिशें
शायद दहकते जिस्म का बिस्तर करीब है.


हालांकि कुर्बतों का कोई सिलसिला नहीं
इक शख्स है कि दूर भी रहकर करीब है.


अब रेज़ा-रेज़ा हो चुकीं परछाइयां तमाम
यानी बरहना धूप का खंज़र करीब है.


अब मेरे चारो ओर है मायूसियों का जाल
सहरा करीब है.. न समंदर करीब है.


आईन-ए-यकीन को गौतम बचा के रख
वहमो-गुमां का सरफिरा पत्थर करीब है.


----देवेन्द्र गौतम