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शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

सारा मंज़र धुआं-धुआं है अब


हर तरफ वहम है गुमां है अब
सारा मंजर धुआं- धुआं है अब.

खत्म होने को दास्तां है अब.
उनकी बातों में दम कहां है अब.

कुछ बचा ही नहीं छुपाने को
राज़ जितना भी था अयां है अब

मखमली सेज़ हो गई रुखसत
खुश्क पत्तों का आशियां है अब.

अपने सर का ख़याल रखिएगा
टूटने वाला आस्मां है अब.

वक़्त ने इस कदर लिया करवट
कल जो बच्चा था नौजवां है अब.

रक्स लफ़्जों का था जहां गौतम
एक ठहरा हुआ बयां है अब.

--देवेंद्र गौतम

सोमवार, 6 अगस्त 2018

हरेक शाह के अंदर कोई फकीर भी था.

नज़र के सामने ऐसा कोई  नज़ीर  भी  था ?
हरेक शाह के अंदर कोई फकीर भी था ?

वो अपने आप में रांझा ही नहीं हीर भी था.
बहुत ज़हीन था लेकिन जरा शरीर भी था.

किसे बचाते किसे मारकर निकल जाते
हमारे सामने प्यादा भी था वज़ीर भी था.

अना के नाम पे कुर्बानियां भी थीं लेकिन
हरेक हाट में बिकता हुआ जमीर भी था.

वहां पे सिर्फ नुमाइश लगी थी चेहरों की
किसी लिबास के अंदर कोई शरीर भी था?

मैं उसको छोड़ के जा भी तो नहीं सकता था
वो मेरा दोस्त भी था और बगलगीर भी था.

मगर सटीक निशाना नहीं था पहले सा
वही कमान, वही हाथ, वही तीर भी था.

-देवेंद्र गौतम






शनिवार, 4 अगस्त 2018

कितनी नफरत फैलानी है, बोलोगे?


मन की मैल हवा में कितना घोलोगे?
कितनी नफरत फैलानी है, बोलोगे?

सोचो सड़कों पर कितना कोहराम मचेगा
तुम तो चादर तान के घर में सो लोगे.

तेरी झोली और तिजोरी भर जाएगी
एक-एक कर जब हर नाव डुबो लोगे.

हमें पता है फिर कोई माया रचकर
दामन पर जो दाग़ लगेंगे धो लोगे.

तेरी आंत के अंदर हम आ बैठे हैं
अपने मन की गांठ कहां पर खोलोगे.



मंगलवार, 10 जुलाई 2018

चिता को आग देने में हथेली ही जला बैठे


कहां आवाज़ देनी थी, कहां दस्तक लगा बैठे.
चिता को आग देने में हथेली ही जला बैठे.

मिला मौका तो वो ज़न्नत को भी दोज़ख बना बैठे.
जिन्हें सूरज उगाना था, दीया तक को बुझा बैठे.

अलमदारों की बस्ती में लगी थी हाट गैरत की
हमारे पास इक खोटा सा सिक्का था, चला बैठे.

बदी फितरत में थी ताउम्र बदकारों में शामिल थे
कभी नेकी अगर की भी तो दरिया में बहा बैठे.

सलाहें मुफ्त में जो बांटते फिरते हैं हम सबको
अमल करते कभी खुद पे तो देते मश्विरा बैठे.

पुरानी अज़मतों का तज़किरा करते रहे लेकिन
विरासत में मिली हर चीज मिट्टी में मिला बैठे.-

-देवेंद्र गौतम

सोमवार, 11 जून 2018

चार तिनकों का आशियाना हुआ

चार तिनकों का आशियाना हुआ,
आंधियों में मेरा ठिकाना हुआ।

जिसको देखे बिना करार न था,
उसको देखे हुए जमाना हुआ।

मरना जीना तो इस जमाने मेंं,
मिलने-जुलने का इक बहाना हुआ।

हर कदम मुश्किलों भरा यारब
किस मुहूरत में मैं रवाना हुआ।

और दुश्वारियां न कर पैदा,
बस बहुत सब्र आजमाना हुआ।

भूल जाएंगे सब मेरा किस्सा,
मैं गए वक़्त का फसाना हुआ।

शुक्रवार, 8 जून 2018

ग़म की धूप न खाओगे तो खुशियों की बरसात न होगी


ग़म की धूप न खाओगे तो खुशियों की बरसात न होगी.
दिन की कीमत क्या समझोगे जबतक काली रात न होगी.

जीवन के इक मोड़ पे आकर हम फिर से मिल जाएं भी तो
लब थिरकेंगे, दिल मचलेगा, पर आपस में बात न होगी.

पूरी बस्ती सन्नाटे की चादर ओढ़ के लेट चुकी है
ऐसे में तूफान उठे तो कुछ हैरत की बात न होगी.

हम अपने सारे मोहरों की चाल समझते हैं साहब
बाजी अब चाहे जैसी हो लेकिन अपनी मात न होगी.

जिस दिन उसमें नूर न होगा, आप उगेगा, आप ढलेगा
चांद तो होगा साथ में लेकिन तारों की बारात न होगी.

गुरुवार, 7 जून 2018

अच्छे दिनों का कौन करे इंतजार और.


आखिर कहां से लाइए सब्रो-करार और.
अच्छे दिनों का कौन करे इंतजार और.

कुछ रहगुजर पे धूल भी पहले से कम न थी
कुछ आपने उड़ा दिए गर्दो-गुबार और.

बिजली किधर से दौड़ रही थी पता नहीं
हर तार से जुड़ा हुआ था एक तार और.

शायद अभी यक़ीन का दर हो खुला हुआ
चक्कर लगा के देखते हैं एक बार और.

हम उनकी अक़ीदत की कहानी भी कहेंगे
चढ़ने दे अभी आंख में थोड़ा खुमार और.

हमलोग तो बिगड़े हुए हालात हैं गोया
खाना है अभी वक्त के चाबुक की मार और.

मैंने कहा किसी की दुआ काम न आई
उसने कहा ख़ुदा पे करो ऐतबार और.

आसां नहीं है वक्त के फंदों को काटना
कितना भी करा लाइए चाकू में धार और

गौतम जो सामने है उसी को कुबूल कर
माना बचे हुए हैं अभी जां-निसार और.