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शनिवार, 29 मार्च 2014

हमको किसी डगर पे भटकने का डर न था

अंधी सी इक डगर थी, कोई राहबर न था
हम उसको ढूंढते थे उघर, वो जिधर न था
इतना कड़ा सफ़र था कि रूदाद क्या कहें
हर सम्त सिर्फ़ धूप थी, कोई शज़र न था
अहबाब की कमी न थी राहे-हयात में
लेकिन तुम्हारे बाद कोई मोतबर न था
सुनने को सारे शहर की सुनते थे हम मगर
हम पर किसी की बात का कोई असर न था
रखते थे अपने दिल में बिठाकर उसी को हम
आखों के सामने जो कभी जल्वागर न था
दरिया में डूबने का सबब कोई तो बताय
कश्ती के आसपास तो कोई भंवर न था
हम जानते थे मौत ही मंज़िल है आख़िरी
हमको किसी डगर पे भटकने का डर न था
यूं तो वहां ख़ुलूस की कोई कमी न थी
उसकी गली में फिर भी हमारा गुज़र न था।
--देवेंद्र गौतम 08860843164