समर्थक

बुधवार, 12 जनवरी 2011

इक इमारत खुद बनायीं.....

इक इमारत खुद बनायीं और खुद ढाई गयी.
फिर वही पिछले दिनों की भूल दुहराई गयी.

जाने कितनी बार इंसानी लहू डाला गया
आजतक लेकिन न अपने बीच की खाई गयी.

फिर तरक्की के नए औकात समझाए गए
फिर हवा के पाओं में ज़ंजीर पहनाई गयी.

जैसे दरिया में उठे कोई सुनामी की लहर
जिंदगी इस दौर में कुछ इस तरह आई गयी.

बस इसी तकरार में गुज़रा रफ़ाक़त का सफ़र
महफ़िलें उनकी उठीं न अपनी तन्हाई गयी.

-----देवेंद्र गौतम