दिलों को जोड़ने वाला सुनहरा तार खो
बैठे..
कहानी कहते-कहते
हम कई किरदार खो बैठे.
हमें महसूस जो
होता है खुल के कह नहीं पाते
कलम तो है वही
लेकिन कलम की धार खो बैठे.
हरेक सौदा
मुनाफे में पटाना चाहता है वो
मगर डरता भी है,
ऐसा न हो बाजार खो बैठे.
कभी ऐसी हवा आई
कि सब जंगल दहक उट्ठे
कभी बारिश हुई
ऐसी कि हम अंगार खो बैठे.
नशा शोहरत का
पर्वत से गिरा देता है खाई में
खुद अपने फ़न के
जंगल में कई फ़नकार खो बैठे.
खुदा होता तो
मिल जाता मगर उसके तवक्को में
नजर के सामने
हासिल था जो संसार खो बैठे.
मेरी यादों के
दफ्तर में कई ऐसे मुसाफिर हैं
चले हमराह लेकिन
राह में रफ्तार खो बैठे.
हमारे सामने अब
धूप है, बारिश है, आंधी है
कि जिसकी छांव
में बैठे थे वो दीवार खो बैठे
अगर सुर से मिलाओ सुर तो फिर संगीत बन
जाए
वो पायल क्या
जरा बजते ही जो झंकार खो बैठे.
-देवंद्र गौतम