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सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

दरो-दीवार पे अब.....

दरो-दीवार पे अब कोई इबारत न रही.
जिसकी तामीर हुई थी वो इमारत  न रही.


दिल के रिश्ते न रहे, दर्द की हिक़मत न रही.
अब यहां मिलने-मिलाने की रवायत न रही.


इक बयाबां मेरे अंदर ही सिमट आया है
अब कहीं दूर भटकने की ज़रुरत न रही.


जबसे हासिल हुआ गुमगश्ता ठिकानों का पता
अपने हाथों की लकीरों से शिकायत न रही.


वही अशआर तो तारीख़ में रौशन होंगे
जिनसे लिपटी हुई जंजीरे-रवायत न रही.


ये कोई जिंस नहीं जिसके खरीदार मिलें
आज बाज़ार में अहसास की कीमत न रही.


.जबसे निकला हूं रेफाक़त के खंडर से गौतम
अब मुझे अपने रफ़ीक़ों की ज़रूरत न रही.


----देवेन्द्र गौतम

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

हरेक लफ्ज़ में नौहा है.....

हरेक लफ्ज़ में नौहा है बेज़ुबानी का.
कहां से लाओगे उन्वां मेरी कहानी का.

बहुत असर हुआ पौधों की बेज़ुबानी का.
के राज़ खुल गया मौसम की हुक्मरानी का.

तुम्हें भी हर कोई खाना-बदोश कहता है
हमारे सर पे भी साया है लामकानी का.

खुली जब आंख तो बिखरी थी धूप चारो तरफ
अजीब रंग था ख्वाबों की सायबानी का.

न हमको तल्खि-ये-इमरोज़ से शिकायत है
न इंतज़ार है फर्दा की गुलफिशानी का.

ज़बां से गर्द बिखरने लगे तो चुप रहना
के इसके बाद तो आलम है बदजुबानी का.

बहुत गुरूर था अपने वजूद पर हमको
वजूद क्या था बस इक बुलबुला था पानी का.

ख़ुदा ने जिनको अता की  हैं रहमतें गौतम
उन्हें भी खौफ नहीं कहरे-आसमानी का.


-----देवेंद्र गौतम

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

ख्वाहिशों का इक छलकता......

ख्वाहिशों का इक छलकता जाम था.
इक परी थी और इक गुलफाम था.


हर वरक पर भीड़ थी, कोहराम था
हाशिये में चैन था, आराम था.


हर अंधेरे घर में उसका काम था.
उसके अन्दर रौशनी का जाम था.


धीरे-धीरे हिल रही थीं पुतलियां
उसकी आँखों में कोई पैगाम था.


जिसने मिट्टी में मिला डाला मुझे
दिल का सरमाया उसी के नाम था.


आज उसका नाम सबके लब पे है
कल तलक वो आदमी गुमनाम था.


मुझको उसकी और उसे मेरी तलब
मैं भी प्यासा वो भी तश्नाकाम था.


हर फ़रिश्ते पर उठी है उंगलियां
क्या हुआ गर मैं भी कुछ बदनाम था.


------देवेंद्र गौतम

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

ढलती हुई यादों के दरो-बाम.....

ढलती हुई यादों के दरो-बाम लिखेंगे.
हर सम्त अँधेरे में तेरा नाम लिखेंगे.

यादों के गुलिस्तां में तसव्वुर के कलम से
सरसब्ज़ दरख्तों पे तेरा नाम लिखेंगे.


हर मोड़ पे हालात के तारीक वरक़ पर
जो कुछ भी कहे गर्दिशे-अय्याम लिखेंगे.


आंखों में अभी खौफ ज़माने का बहुत है
सीने में लरजते हुए पैगाम लिखेंगे.


जब सर पे मेरे ग़म की कड़ी धूप चढ़ेगी
ढलते हुए सूरज का हम अंजाम लिखेंगे.


रातों को अगर नींद न आये तो उसे हम
उजड़े हुए ख्वाबों की घनी शाम लिखेंगे.


जिस प्यार ने जीने का सलीका हमें बख्शा
उस प्यार के गीतों को सरे-आम लिखेंगे.


इस बार ख्यालों के जुनूंखेज़ वरक पर
हम अक्ल से मांगे हुए इल्जाम लिखेंगे.


फिर वक़्त का तारीक  वरक़ चमकेगा गौतम
इस सुब्ह को भी लोग सियहफाम लिखेंगे.


-----देवेंद्र गौतम

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

ज़ख्म यादों का......

ज़ख्म यादों का फिर हरा होगा.
अबके सावन में और क्या होगा.


जो जहां है वहीं रुका होगा.
और आगे की सोचता होगा.


मेरे ग़म से भी आशना होगा.
गर हकीकत में वो खुदा होगा.


खुदपरस्ती बहुत ज़रूरी है
अपने बारे में सोचना होगा.


धूप मुझमें समा गयी होगी
आज सूरज नहीं ढला होगा.


एक सहरा है, एक समंदर है
आज दोनों का सामना होगा.


मेरे कहने में, तेरे सुनने में
चंद लफ़्ज़ों का फासला होगा.


कौन मुन्सिफ है, कौन मुजरिम है
आज..और आज फैसला होगा.


चाहे जैसा भी जाल हो गौतम
बच निकलने का रास्ता होगा.


--देवेंद्र गौतम

आंच शोले में नहीं.......

आंच शोले में नहीं, लह्र भी पानी में नहीं.
और तबीयत भी मेरी आज रवानी में नहीं.


काफिला उम्र का समझो कि रवानी में नहीं.
कुछ हसीं ख्वाब अगर चश्मे-जवानी में नहीं.


खुश्क होने लगे चाहत के सजीले पौधे
और खुशबू भी किसी रात की रानी में नहीं.


दिल को बहलाने क़ी हल्की सी एक कोशिश है
और कुछ भी मेरी रंगीन-बयानी में नहीं.


धुंद में खो गए माजी के कबीले गौतम
और तेरा अक्स भी अब तेरी निशानी में नहीं.


------देवेन्द्र गौतम

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

मुख्तलिफ रंगों का इक सैले -रवां.......

मुख्तलिफ रंगों का इक सैले -रवां काबू में था.
इक अज़ब खुशरंग सा साया मेरे पहलू में  था.


कुछ नहीं तो इन अंधेरों से झगड़ लेता जरा
जोर इतना कब किसी सहमे हुए जुगनू में था.


कल न जाने कौन सी मंजिल पे जा पहुंचा था मैं
जिंदगी के हाथ में या मौत के पहलू में था.


एक झोंके में कई चेहरे बरहना हो गए
राज़ किस-किस का निहां उस फूल की खुशबू में था.


खामुशी हर बोल पे पहरों बिखरती ही गयी
रक्स का सारा मज़ा बजते हुए घुंघरू में था.


छोड़कर जाता कहां मुझको वो हमसाया मेरा
शोरो-हंगामा से निकला तो सदाए-हू में था.


बस कि गौतम अब मुझे कुछ याद आता ही नहीं
कौन था वो शख्स जो बरसों मेरे पहलू में था.


------देवेन्द्र गौतम

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

सहने दिल में..........

सहने-दिल में जुल्मते-शब की निशानी भी नहीं.
चांदनी रातों की हमपे मेहरबानी भी नहीं.

ढूंढता हूं धुंद में बिखरे हुए चेहरों को मैं
यूं किसी सूरज पे अपनी हुक्मरानी भी नहीं.

ताके-हर-अहसास पर पहुंचा करे शामो-सहर
खौफ की बिल्ली अभी इतनी सयानी भी नहीं.

किस्सा-ए-पुरकैफ का रंगीन लहजा जा चुका
अब किताबे-ज़ीस्त में सादा-बयानी भी नहीं.

याद भी आती नहीं पिछले ज़माने की हमें
और मेरे होठों पे अब कोई कहानी भी नहीं.

कल तलक सारे जहां की दास्तां कहता था मैं
आज तो होठों पे खुद अपनी कहानी भी नहीं.

कोशिशे-परवाज़ की गौतम हकीकत क्या कहें
आजकल अपने परों में नातवानी भी नहीं.


----देवेन्द्र गौतम

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

रहगुज़र नक़्शे-कफे-पा से........

रहगुज़र नक़्शे-कफे-पा से तही रह जाएगी.
जिंदगी फिर जिंदगी को ढूंढती रह जाएगी.

मैं चला जाऊंगा अपनी प्यास होटों पर लिए
मुद्दतों दरिया में लेकिन खलबली रह जाएगी.

झिलमिलाती साअतों की रहगुज़र पे मुद्दतों
रौशनी शाम-ओ-सहर की कांपती रह जाएगी.

दिन के आंगन में सजीली धूप रौशन हो न हो
रात के दर पर शिकस्ता चांदनी रह जाएगी.

रौशनी की बारिशें हर सम्त से होंगी मगर
मेरी आँखों में फ़रोज़ां तीरगी रह जाएगी.

लम्हा-लम्हा रायगां  होते रहेंगे रोजो-शब
इस सफ़र में मेरे पीछे इक सदी रह जाएगी.

चाहे जितनी नेमतें हमपे बरस जाएं  मगर
जिंदगी में फिर भी गौतम कुछ कमी रह जाएगी.

-----देवेन्द्र गौतम

हरेक लम्हा लहू में फसाद.......

हरेक लम्हा लहू में फसाद जारी था.
अजीब खौफ मेरे जिस्मो-जां पे तारी था.


तुम्हारी राह में हरसू सुकूं के साये थे
हमारी राह में सहरा-ए-बेकरारी था.


हवा में डूब के देखा तो ये खुला मुझपर
के तिश्नगी का सफ़र हर नफस में जारी था.


मेरी तकान पे कतरा के तुम निकल जाते
यही तो दोस्तों! अंदाज़े-शहसवारी था.


मैं ढाल बन गया खुद अपनी शीशगी के लिए
हरेक सम्त से ऐलाने-संगबारी था.


सजे हुए थे बहुत अजमतों के आईने
मेरी ज़बीं पे मगर अक्से-खाकसारी था,


बुझे हुए थे निगाहों के बाम-ओ-दर गौतम
हमारे दिल में मगर रंगे-ताबदारी था.


----देवेन्द्र गौतम

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

वही नज़र, वही अंदाज़े-गुफ्तगू .......

वही नज़र, वही अंदाज़े-गुफ्तगू लाओ.
हमारे सामने तुम खुद को हू-ब-हू लाओ.


शज़र-शज़र से जो बेरब्तगी समेत सके
उसी ख़ुलूस के मौसम को चार-सू लाओ.


हरेक हर्फ़ पे रौशन हो ताजगी की रमक
कलम की नोक पे जज़्बात का लहू लाओ.


बहुत दिनों की उदासी का जायका बदले
अब अपने घर में मसर्रत के रंगों-बू लाओ.


किसी लिबास में बेपर्दगी नहीं छुपती
हमारे जिस्म पे मलबूसे-आबरू लाओ.


हरेक वक़्त रफीकों की बात क्या मानी
कभी तो लब पे तुम अफसान-ए-अदू लाओ.


बिखर चुका है बहुत शोरो-गुल फजाओं में
इसे समेट के अब इन्तशारे-हू लाओ.


हमारे सर पे अंधेरों का बोझ है गौतम
कभी हमें भी उजालों के रू-ब-रू लाओ.


----देवेन्द्र गौतम

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

जिधर देखूं तबाही का......

जिधर देखूं तबाही का समां है.
सलामत अब किसी का घर कहां है.


मेरे चारो तरफ अक्से-रवां है.
खलाओं में कोई सूरत निहां है.


रफ़ाक़त के पशे-पर्दा अदावत
अज़ब रिश्ता हमारे दरमियां है.


जरा सोचो कदम रखने के पहले
तुम्हारी राह का पत्थर कहां है.


न मुझको याद है बीते दिनों की
न मेरे लब पे कोई दास्तां  है.


मेरे सीने में अंगारे भरे हैं
मेरी आंखों में सदियों का धुआं है.


कदामत छा गयी सारी फ़ज़ा पर
मगर कुदरत का हर गोशा जवां है


----देवेंद्र गौतम

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

हर मुसाफिर जुस्तजू की......

हर मुसाफिर जुस्तजू की खाक में खोया हुआ.
मंजिलें जागी हुई हैं, रास्ता सोया हुआ.


तोहमतों की कालिकें माथे पे रोशन हो गयीं
वरना मैं भी कल तलक था दूध का धोया हुआ.


हर तरफ थी सात रंगों की छटा निखरी हुई
बैठे-बैठे बारहा ऐसा भरम गोया हुआ.


खामुशी की रेत थोड़ा सा हटाकर देख लो
गुफ्तगू का एक दरिया है यहां सोया हुआ.


फ़स्ल ख्वाबों की उगाता भी तो आखिर किस तरह
तीरगी का खौफ जिसके दिल में था बोया हुआ.


जीते जी मैं किस तरह रस्ते में फेंक आता उन्हें
बोझ जिन रिश्तों का इन कन्धों पे था ढोया हुआ.


शाम को जब दोस्तों में वक़्त की बातें चलीं
अपना गौतम लग रहा था किस कदर खोया हुआ.


----देवेन्द्र गौतम

अँधेरी रात के दामन में......

अंधेरी  रात के दामन में ख्वाबों के उजाले रख.
तमन्नाओं के सूरज को अभी दिल में संभाले रख.


बहुत मुश्किल है  इस माहौल में कुछ बात कह पाना
जो बातें लब पे आतीं हैं उन्हें दिल में संभाले रख.


सफ़र पे चल पड़ा हूं मैं तो अब रुकना नहीं मुमकिन
मेरे पावों  में ए मालिक! तू अब जितने भी छाले रख


तेरी रफ़्तार तेरी ख्वाहिशों को सर्द कर देगी
किसी  तर्ह तू अपने जज़्ब-ये-दिल को उबाले रख.


बहाना कुछ तो हो सबके लबों पे छाये रहने का
मेरी वहशत के किस्सों को ज़माने में उछाले रख.


गिले-शिकवे भी कर लेंगे अगर मौका मिला गौतम
अभी फुर्सत नहीं मुझको अभी ये बात टाले रख.


----देवेन्द्र गौतम .

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

हर तरफ रंजो-ग़म का......

हर तरफ रंजो-ग़म का धुआं रह गया.
ख्वाहिशों का अज़ब इम्तिहां  रह गया.


इक दहकती हुयी सी ज़मीं रह गयी
इक पिघलता हुआ आस्मां रह गया.


रंजिशों के कुहासे में लिपटा हुआ
उसकी यादों का कोहे-गरां रह गया.


नींद उड़ती गयी, ख्वाब बुझते गए
खुश्क आँखों का सूना मकां रह गया.


जिसकी खातिर भटकता फिरा चार-सू
वो मुझी से बहुत बदगुमां रह गया.


फिर उसी सम्त खंज़र हवा के चले
जिस तरफ जिन्दगी का निशां रह गया.


तीरगी का समंदर तआकुब  में है
रौशनी का सफीना कहाँ रह गया.


दिल से गौतम हरेक शक्ल ओझल हुयी
उसकी यादों का फिर भी निशां रह गया.


----देवेन्द्र गौतम