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शनिवार, 30 मार्च 2013

मतलब निकालते रहो मेरे बयान का

चक्कर लगा के देख चुके आसमान का.
अब खौफ ही नहीं रहा अगली उड़ान का.

परछाइयों के बीच उसे ढूंढते हैं हम
शायद कोई वजूद हो वहमो-गुमान का.

मेरी हरेक बात में शामिल है और बात
मतलब निकालते रहो मेरे बयान का.

चारो तरफ है जाल बराबर बिछा हुआ
खतरा बना हुआ है परिंदे की जान का.

मुझमें सिमट के बैठ गया है जो एक शख्स
किरदार बन गया है मेरी दास्तान का.

बेचैनियों के बीच से होकर गुजर गया
इक पल अगर मिला भी कभी इत्मिनान का.

उसकी नजर गड़ी थी परिंदे की आंख पर
हर तीर था निशाने पर उसके कमान का.

दीवारे-दर को दे गया अपने तमाम अक्स
नक्शा बदल के रख दिया मेरे मकान का.

क्या जाने आज कौन सा मंजर दिखायी दे
बदला हुआ है रंग अभी आसमान का.

गौतम हमारी बात का गर तू बुरा न मान
हर लफ्ज़ आज बख्श दे अपनी जु़बान का.

--देवेंद्र गौतम



रविवार, 24 मार्च 2013

पूछें अगर वो नाम तो मजहब भी बोलना

अपनी हरेक बात का मतलब भी बोलना.
लहज़ा बदल के बोलना तुम जब भी बोलना.

उनकी हरेक हां में मिलानी पड़ेगी हां
वो दिन को शब कहें तो उसे शब भी बोलना.

ताकि किसी तरह की मलामत नहीं रहे
पूछें अगर वो नाम तो मजहब भी बोलना.

मैंने सभी की बात सुनी और चुप रहा
कुछ चाहते हैं आज मेरे लब भी बोलना.

बाबू को याद रहती नहीं है किसी की बात
कुछ बात भूल जाते हैं साहब भी बोलना.

हांलाकि मैं दिखा चुका हूं सच का आईना
वो चाहते नहीं हैं मगर अब भी बोलना.

---देवेंद्र गौतम

सोमवार, 18 मार्च 2013

बंद करिए किताब की बातें

कागजी इंकलाब की बातें.
बंद करिए किताब की बातें.

कितने अय्यार हैं जो करते हैं
हड्डियों से  कबाब की बातें.

पढ़ते रहते हैं हम रिसालों में
कैसे-कैसे अज़ाब की बातें.

नींद आखों से दूर होती है
जब निकलती हैं ख्वाब की बातें.

और थोड़ा करीब आते तो
खुल के होतीं हिज़ाब की बातें.

कौन सुनता है इस जमाने में
एक ख़ाना-खराब की बातें.

---देवेंद्र गौतम

रविवार, 10 मार्च 2013

चलते-चलते सूई घडी की रुक जाती है

दम लेने को एक ठिकाना ढूँढ रही है.
अपनी गाड़ी जाने कब से बेपटरी है.

हमने बांध लिया है सारी नदियों को
इसीलिए जीवन की नैया डूब रही है.

बस जायें जिस देस में लेकिन कुछ नस्लों तक
अपनी मिटटी की खुशबू बाकी रहती है.

बेमकसद परदेस की खाक नहीं छानी
हमने अपनी मिटटी की खुशबू बांटी है.

उन आंखों ने ख्वाब बहुत देखे होंगे
जिन आंखों में 'नीर भरी दुःख की बदली' है.

अपने दिल की धड़कन पर काबू रखना
चलते-चलते सूई घडी की रुक जाती है.

खून रगों में दौड़ रहा है कुछ ऐसे
जिस्म के अंदर जैसे एक नदी बहती है.

आवारा बादल मंडराते रहते हैं
धरती अपने मरकज़ पर कायम रहती है.

मतलब की दुनिया है गौतम, क्या समझे!
हर नेकी में पोशीदा थोड़ी सी बदी है.

---देवेंद्र गौतम