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बुधवार, 7 जनवरी 2015

ज़िंदगी मेरा बुरा चाहती है

और जीने की रज़ा चाहती है
ज़िंदगी मेरा बुरा चाहती है

आंधियों से न बचाये जायें
जिन चराग़ों को हवा चाहती है

सर झुकाये तो खड़ा है हर पेड़
और क्या बादे-सबा चाहती है

बंद कमरे की उमस किस दरजा
हर झरोखे की हवा चाहती है

मेरी तकलीफ़ बिछड़ कर मुझसे
मुझको पहले से सिवा चाहती है

--देवेंद्र गौतम