मेरी आंखों के जीने से कोई दिल में उतर आया.
हजारों बार पलकें बंद कीं फिर भी नज़र आया.
मैं इक भटका मुसाफिर कब से दोराहे पर बैठा हूं
न कोई हमसफ़र आया न कोई राहबर आया.
धुआं बनकर हवा में गुम हुआ इक रोज़ वो ऐसा
कि फिर उसकी खबर आयी न वापस लौटकर आया.
अचानक रात को मैं चौंककर बिस्तर से उठ बैठा
न जाने ख्वाब कैसा था कि उसको देख थर्राया.
गए इक एक कर साहब के केबिन में सभी लेकिन
कोई हंसता हुआ निकला कोई अश्कों से तर आया.
किसी की क़ाबलियत का यहां हासिल न था कुछ भी
कई कंधे चढ़े तो कामयाबी का हुनर आया.
उसे मालूम था कि ताक़ में होंगे कई दुश्मन
कई रस्ते बदलकर इसलिए वो अपने घर आया.
----देवेंद्र गौतम