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मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

जिंदगी भर जिंदगी को जिंदगी धिक्कारती

काढ लेती फन अचानक और बस फुफकारती.
जिंदगी की जंग बोलो किस तरह वो हारती.

देवता होते हैं कैसे हमने जाना ही नहीं
बस उतारे जा रहे हैं हर किसी की आरती.

अपना चेहरा ढांपकर मैं भी गुजर जाता मगर
जिंदगी भर जिंदगी को जिंदगी धिक्कारती.

सांस के धागों को हम मर्ज़ी से अपनी खैंचते
मौत आती भी अगर तो बेसबब झख मारती.

रात अंधेरे को अपनी गोद में लेती गयी
सुब्ह की किरनों को आखिर किसलिए पुचकारती

पूछ मुझसे किसके अंदर जज़्ब है कितनी जलन
मैं कि लेता आ रहा हूं हर दीये की आरती.

--देवेंद्र गौतम




रविवार, 24 फ़रवरी 2013

बस्तियां बसती गयीं और दफ़्न वीराने हुए

                           कत्ता    
अपनी बातें गौर से सुनने की जिद ठाने हुए.
बीच रस्ते में खड़े हैं रस्सियां ताने हुए.
माजरा क्या है हमें कोई बताता ही नहीं
कौन हैं ये लोग? न जाने, न पहचाने हुए.
              
          
इस ज़मीं पे आजतक जितने भी मयखाने हुए.
जिंदगी को देखने के उतने पैमाने हुए.

लोग कहते हैं यहां ऐसे भी दीवाने हुए.
दर्दो-गम जिनके लिए उल्फत के नजराने हुए.

रोज जिनकी राह में शमए जलाती थी हवा
रोज अंगारों से खेले ऐसे परवाने हुए.

एक जंगल था यहां पर दूर तक फैला हुआ
बस्तियां बसती गयीं और दफ़्न वीराने हुए.

रंग गिरगिट का बदल जाता है मौसम देखकर
वो कभी अपने भी थे? जो आज बेगाने हुए.

आजतक लेकिन न मिल पाया कभी अपना सुराग
मंजिलें जानी हुई, रस्ते भी पहचाने हुए.

---देवेंद्र गौतम

शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

कितने घर बर्बाद रहे

जितनी भी तादाद रहे.
असली मुद्दा याद रहे.

ऊपर से गांधीवादी
अंदर से ज़ल्लाद रहे.

घूर के देखा, जेल गए
क़त्ल किया, आज़ाद रहे.

इतनी जंजीरों में रहकर
हम कैसे आज़ाद रहे.

जबतक तेरा साथ रहा
शाद रहे,आबाद रहे.

 गांव उजड़ते हैं तो उजडें
शह्र मगर आबाद रहे.

पांच साल में लौटेंगे
इनका चेहरा याद रहे.

कुछ हम सबको हासिल हो
कुछ हम सबके बाद रहे.

एक बंजारन के चक्कर में
कितने घर बर्बाद रहे.

---देवेंद्र गौतम

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

वरक़ जिंदगी का पलटकर रहेंगे

(गज़लगंगा की 150  वीं पोस्ट)

जुनूं की बिसातें उलटकर रहेंगे.
हम अहले-खिरद से निपटकर रहेंगे.

पता है कि खुद में सिमटकर रहेंगे.
हम अपनी जड़ों से भी कटकर रहेंगे.

ये पंजे बड़े तेज़ हैं इनसे बचना
ये दुनिया की हर शै झपटकर रहेंगे.

भले आग लग जाये सारे नगर में
हम अपने घरों में सिमटकर रहेंगे.

लिखेंगे कहानी नयी मंजिलों की
वरक़ जिंदगी का पलटकर रहेंगे.

कभी तो हमारी ज़रूरत पड़ेगी
वो कितने दिनों हमसे कटकर रहेंगे.

भुला देंगे यादें गये मौसमों की
हवाओं से कितना लिपटकर रहेंगे.

वतन पर बढ़ेंगे अभी और खतरे
अगर हम कबीलों में बंटकर रहेंगे.

ख़ुशी के बहाने तलाशेंगे गौतम
गमे -जिंदगी से सलटकर रहेंगे.

---देवेंद्र गौतम