अब यहां कोई करिश्मा या कोई जादू न हो.
आदमी बस आदमी बनकर रहे साधू न हो.
हर तरफ फैला रहे कमज़र्फ लोगों का हुजूम
शह्र की आबो-हवा अब इतनी बेकाबू न हो.
हुक्म आया है कि सब सहमे हुए आयें नज़र
फूल खिलता है खिले, लेकिन कहीं खुशबू न हो.
तेज़ लहरों से उभरती है सनाशाई सी कुछ
इस समंदर में मेरा खोया हुआ टापू न हो.
जा रहा है गांव से तो जा, मगर उसकी तरह
लौटकर आये तो तू भी शह्र का बाबू न हो.
----देवेंद्र गौतम
----देवेंद्र गौतम