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सोमवार, 10 जनवरी 2011

अब यहां कोई करिश्मा.....

अब यहां कोई करिश्मा या कोई जादू न हो.
आदमी बस आदमी बनकर रहे साधू न हो.

हर तरफ फैला रहे कमज़र्फ लोगों का हुजूम
शह्र की आबो-हवा अब इतनी बेकाबू न हो.

हुक्म आया है कि सब सहमे हुए आयें नज़र
फूल खिलता है खिले, लेकिन कहीं खुशबू न हो.

तेज़ लहरों से उभरती है सनाशाई सी कुछ
इस समंदर में मेरा खोया हुआ टापू न हो.

जा रहा है गांव से तो जा, मगर उसकी तरह
लौटकर आये तो तू भी शह्र का बाबू न हो.

----देवेंद्र गौतम