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मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

ज़ख्म यादों का......

ज़ख्म यादों का फिर हरा होगा.
अबके सावन में और क्या होगा.


जो जहां है वहीं रुका होगा.
और आगे की सोचता होगा.


मेरे ग़म से भी आशना होगा.
गर हकीकत में वो खुदा होगा.


खुदपरस्ती बहुत ज़रूरी है
अपने बारे में सोचना होगा.


धूप मुझमें समा गयी होगी
आज सूरज नहीं ढला होगा.


एक सहरा है, एक समंदर है
आज दोनों का सामना होगा.


मेरे कहने में, तेरे सुनने में
चंद लफ़्ज़ों का फासला होगा.


कौन मुन्सिफ है, कौन मुजरिम है
आज..और आज फैसला होगा.


चाहे जैसा भी जाल हो गौतम
बच निकलने का रास्ता होगा.


--देवेंद्र गौतम

आंच शोले में नहीं.......

आंच शोले में नहीं, लह्र भी पानी में नहीं.
और तबीयत भी मेरी आज रवानी में नहीं.


काफिला उम्र का समझो कि रवानी में नहीं.
कुछ हसीं ख्वाब अगर चश्मे-जवानी में नहीं.


खुश्क होने लगे चाहत के सजीले पौधे
और खुशबू भी किसी रात की रानी में नहीं.


दिल को बहलाने क़ी हल्की सी एक कोशिश है
और कुछ भी मेरी रंगीन-बयानी में नहीं.


धुंद में खो गए माजी के कबीले गौतम
और तेरा अक्स भी अब तेरी निशानी में नहीं.


------देवेन्द्र गौतम