सुर्ख और ज़र्द लम्हों की कश्मकश ने
जब-जब
तुम्हारे वजूद की ऊंची इमारत को
बेरब्त खंडरों में तब्दील किया
और जब-जब
तुम्हारे चेहरे पर
आड़ी-तिरछी रेखाओं की सल्तनत कायम हुई
तुम हमारे करीब आये....
तुम हमारे करीब आये
और
अपने कांपते हुए हाथों से
एक बोसीदा सी गठरी
हमारे कंधों पर रखकर
मुतमईन हो गए....
तुमने कहा-
इसमें वो लालो-गुहर हैं
जिनकी रौशनी
अबतक हमारी रहनुमाई करती आई है
अब....अब तुम्हारे काम आएगी....
सदियां गुज़र गयीं......
हम-तुम
न जाने कितनी बार मिले
और...न जाने कितनी बार हमने
तुम्हारे हुक्म की तामील की.
लेकिन धीरे-धीरे....
तुम्हारे लालो-गुहर
तुम्हारे हीरे-जवाहरात
खुरदुरे पत्थरों की शक्ल अख्तियार करने लगे
और हर पत्थर पे सब्त होती गयी
गुलामी की एक लंबी सी दास्तां....
अब तो...
इस बोसीदा गठरी से
बदबू भी आने लगी है.
इसीलिए इसबार हमने
अपने हाथों में उठा ली है
एक जलती हुई मशाल
और इसी मशाल की रौशनी के सहारे हमने
अंधेरों की तिलस्मी सियासत के खिलाफ
बगावत का नारा बुलंद किया है.
मुमकिन हो तो तुम भी
पुरानी अजमतों के बोझ को ताक पर रख दो
और हमारी मशाल की रौशनी के लिए
अपना लहू दो......
अपना..... लहू..... दो....!
----देवेन्द्र गौतम