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रविवार, 27 जनवरी 2013

धीरे-धीरे कट रहा है हर नफ़स का तार क्यों

धीरे-धीरे कट रहा है हर नफ़स का तार क्यों.
जिंदगी से हम सभी हैं इस कदर बेजार क्यों.

हम खरीदारों पे आखिर ये नवाजिश किसलिए
घर के दरवाज़े तलक आने लगा बाज़ार क्यों.

दूध के अंदर किसी ने ज़ह्र तो डाला ही था
यक-ब-यक बच्चे भला पड़ने लगे बीमार क्यों.

धूप में तपती नहीं धरती जहां इक रोज भी
रात दिन बारिश वहां होती है मुसलाधार क्यों.

बात कुछ तो है यकीनन आप चाहे जो कहें
आज कुछ बदला हुआ है आपका व्यवहार क्यों.

पांव रखने को ज़मी कम पड़ रही है, सोचिये
यूं खिसकता जा रहा है आपका आधार क्यों.

---देवेंद्र गौतम


शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

वक़्त भागा जा रहा था और हम ठहरे हुए थे


गर्दिशे-हालात की जंजीर से जकड़े हुए थे.
वक़्त भागा जा रहा था और हम ठहरे हुए थे.

नींद आती थी मगर उसमें कोई लज्ज़त नहीं थी
ख्वाब जाने कौन से ताबूत में सोये हुए थे.

इक शगूफा छोड़कर कोई वहां से चल दिया था
और हम आपस में कितनी देर तक  उलझे हुए थे.

ज़ेहनो-दिल में एक बेचैनी सी थी छायी  हुयी
रात का अंतिम पहर था और हम जागे हुए थे.

और फिर साबित हुआ हमपे कि धरती गोल है
जब अचानक मिल गए वे लोग जो बिछड़े हुए थे.

उम्र के इस मोड़ पर कोई सुधर सकता है क्या
लोग कहते हैं कि हम बचपन के ही बिगड़े हुए थे.

---देवेंद्र गौतम