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बुधवार, 27 अप्रैल 2011

ज़रूरत हर किसी की.....

ज़रूरत हर किसी की हर किसी के सामने लाना.
नदी सूखे तो दरिया को नदी के सामने लाना.

अंधेरे और उजाले का खुले कुछ भेद हमपर भी 
अगर नेकी मिले तुमको बदी के सामने लाना.


गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

ज़मीं बदली, फलक बदला.....

"ज़मीं बदली, फलक बदला, निज़ामे-दो-जहां  बदला".
मगर जिसको बदलना था अभी तक वो कहां बदला.

गली बदली, नगर बदला, मकीं बदले, मकां बदला.
बस इक लम्हे की करवट से शबिस्ताने-जहां बदला.

वही लहजा पुराना सा, वही आदम, वही हव्वा 
न अपनी दास्तां बदली, न अंदाज़े-बयां बदला.


रविवार, 17 अप्रैल 2011

अजीब ख्वाहिशों का ज़लज़ला है....

अजीब ख्वाहिशों का ज़लज़ला है घर-घर में.
किसी के पांव सिमटते नहीं हैं चादर में.

मैं ऐसा अब्र के जो आजतक भटकता हूं
वो एक नदी थी के जो मिल गयी समंदर में.


शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

ख्वाबों की धुंध में अभी.......

ख्वाबों की धुंध में अभी रूपोश हैं सभी.
आंखें खुली हुई हैं प बेहोश हैं सभी.

तेरे असर से चार-सू रहता था शोरगुल
टूटा तेरा तिलिस्म तो खामोश हैं सभी.


सोमवार, 11 अप्रैल 2011

दिलों में तैरती कागज़ की नाव.....

दिलों में तैरती कागज़ की नाव तो देखो. 
नदी तो देखो, नदी का बहाव तो देखो.

मैं कौन हूं मेरे नज़दीक आओ तो देखो.
तुम अपने आप को मुझमें छुपाओ तो देखो.

ज़मीन पांव तले है न आस्मां सर पर
नज़र की धुंध को लेकिन हटाओ तो देखो. 


शनिवार, 9 अप्रैल 2011

एक कत्ता

(जंतर-मंतर के नाम)

दो कदम पीछे हटे हैं वो अभी 
एक कदम आगे निकलने के लिए.
ये सियासत का ही एक अंदाज़ है 
झुक गए हैं और तनने के लिए.

-----देवेंद्र गौतम 

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

ज़मीं से दूर..बहुत दूर....

ज़मीं से दूर..बहुत दूर..आसमान में है.
मेरे जुनूं का परिंदा अभी उड़ान में है.

कहां से लायें अंधेरों से जूझने का रसूख
हमारे वक़्त का सूरज अभी ढलान में है.


वटवृक्ष: गज़ल

रश्मि प्रभा जी ने गज़लगंगा की एक ग़ज़ल अपने चर्चित ब्लॉग  वटवृक्ष में पोस्ट की. उन्हें हार्दिक धन्यवाद! उनका ब्लॉग देखने के लिए नीचे क्लिक करें--

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

दर्दो-गम का इक समंदर.....

दर्दो-गम का इक समंदर रख लिया है.
हमने अपने दिल पे पत्थर रख लिया है.

चैन की इक सांस के बदले में हमने
अपने अंदर इक बवंडर रख लिया है.

अजमतों का बोझ कांधे से हटाकर
हमने अपने सर के ऊपर रख लिया है.


रविवार, 3 अप्रैल 2011

कुछ दुधमुही ग़ज़लें

 (आज किताबों की आलमारी में एक पुरानी डायरी मिली जिसमें मेरी शुरूआती दौर की ग़ज़लें हैं. 1975 -76 के ज़माने की. जब मैंने आरा की निशिस्तों में शिरक़त करनी शुरू की थी. कुछ रवायती मेज़ाज़ की कुछ ज़दीदियत की ओर रुख करती हुई.... दुधमुही सी....आपके साथ शेयर कर रहा हूं मुलाहिजा फरमाएं )

--देवेन्द्र गौतम 

(1)
जिगर कहना जिन्हें मुश्किल वो पत्थर याद आते हैं.
गुज़िश्ता दौर के मुझको सितमगर याद आते हैं.

निगाहें खुश्क होती हैं, जिगर रह-रह तड़पता है 
शबे-फुरक़त की घड़ियों में सितमगर याद आते हैं.

ये मदहोशी भी ए साक़ी! क़यामत बन के छाई है 
भुलाया होश में जिनको वो पीकर याद आते हैं.

(2)

(दायरे-अदबिया की जानिब से तरही मुशायरे में पढ़ी गयी ग़ज़ल. तरह थी.."रहनुमा पर भी गुमाने-रहनुमा होता नहीं").

दिल हमारा अब कभी महवे-गिला होता नहीं.
दर्द जब हद से बढे उसका पता होता नहीं.

पोख्तातर वो दिल नहीं जो गम के शोलों से बचे
तप न जाये जब तलक सोना खरा होता नहीं.


धडकनों का ज़लज़ला है, हर नफ़स तूफ़ान है
इस जुदाई की घडी में क्या से क्या होता नहीं.

जल रहा था जिस्म लेकिन दिल तड़पता ही रहा
मौत पर भी साजे-हस्ती बेसदा होता नहीं.

मस्त आंखों से कोई सहबा पिला देता जरा
मुद्दतों फिर आतिशे-गम का पता होता नहीं.

रह्ज़नों के काफिले इतने मिले हैं राह में
"रहनुमा पर भी गुमाने-रहनुमा होता नहीं."

(3 )

लज्ज़तों की धूप फैले वो फुगां पैदा करो.
इस जहां से खूबसूरत इक जहां पैदा करो.

आस्मां के ज़न्नतो-दोजख से क्या मतलब तुम्हे
अपनी काली धरती पर ही कहकशां पैदा करो.

एक बुलबुल की सदायें महवे-गुल थीं दर्द में
अब खिजां से दूर कोई गुलसितां पैदा करो.

अब नकुशे-कारवां की जुस्तजू है रायगां 
कारवां जिसपर चले तुम वो निशां पैदा करो.  

(4 )

ख़ुशी की सुब्ह भी मायूसियों की शाम हो जाये.
कहीं ये दिल न वक्फे-गर्दिशे-अय्याम हो जाये.

हयाते-मुख़्तसर के नाम पर वादा न कर हमदम 
न जाने कब हमारी जिंदगी की शाम हो जाये.

अगर इंसान में इंसानियत की बू नहीं आती
तो हर तारे-नफ़स दौरे-हवस का दाम हो जाये.

तेरी उल्फत का किस्सा मैं सितारों को सुनाऊंगा
ज़मीं की बात का चर्चा फलक पर आम हो जाये.

चले आते हैं हज़रत शेख कर दो बंद दरवाज़ा
कहीं ऐसा न हो ये मैक़दा बदनाम हो जाये.

(5 ) 

ये सुब्हो-शाम के जो ज़र्द साये जाते हैं.
हमारी उम्र की दौलत चुराये जाते हैं.

किस की शक्ल को पहचानता नहीं कोई
तमाम लोग नकाबों में पाये जाते हैं.

सुना भी जाओ तबाही की दास्तां अपनी 
के दोस्तों से कहीं गम छुपाये जाते हैं.

तुम्हारी और नज़र आइनों की फिरती है
हजारों अक्स जहां जगमगाए जाते हैं.

वो जिनके प्यार में ख्वाबों के बन गए थे महल
उचटती नींद के आंगन में पाये जाते हैं.

ये कागजी हैं भला किसके काम आयेंगे
जो फूल अहले-सियासत खिलाये जाते हैं.

मसर्रतों की कहीं धूप अब नहीं मिलती
ग़मों के साये मेरे सर पे छाये जाते हैं.

(6 )

तस्वीरे-वफ़ा हल्की ही सही आंखों में कोई झलका जाये.
फिर दिल की सूनी वादी में जज्बों का कुहासा छा जाये.

मैं उसको याद भी आऊं तो दुल्हन की तरह शरमा जाये.
तन्हाई के सूने कमरे में वो पर्दानशीं बल खा जाये.

बरसात की भीगी रात में जब यादों की खुशबू छा जाये.
ख्वाबों के सुनहरे बिस्तर पर मखमल सा बदन लहरा जाये.

माना कि गुनाहों के नभ पर हम तुम दो प्यासे बादल हैं
मिलकर गरजें, बरसें चमकें, मुमकिन है कि सावन आ जाये.

मैं यूं तो ग़मों  की चादर में मुद्दत से लेटा हूं लेकिन 
खुशियों की परी आये तो कभी और मेरी नींद उड़ा जाये. 

किस हुस्न में इतनी ताक़त है के मुझको मुझसे अलग कर दे
मुमकिन है के ऐसे किस्सों पे हंसने का ज़माना आ जाये.

(7)

भटक रहा है अभी रोजो-शब सुखन मेरा.
अभी से क्या कहूं किससे जुड़ा है फन मेरा.

मेरे जुनूं का खिलौना बना है मन मेरा.
अभी तलक है मेरे साथ बालपन मेरा .

हमेशा आतिशे-गम को पनाह देता है
मेरा रफीक है जलता हुआ बदन मेरा.

शिकस्ता शाखों से उभरेगा एक हरा मौसम
इसी उमीद पे उजड़ा रहा चमन मेरा.

किसी पहाड़ की मानिंद महवे-ख्वाब हूं मैं
के सर्द जज्बों का कुहरा है इल्मो-फन मेरा.

ज़मीं पे आदमो-हव्वा की कौम रहती है
मुझे पुकार रहा है अभी वतन मेरा.

मुझे खबर नहीं गौतम के इस ज़माने में
कहां छुपा है सितारों भरा गगन मेरा.

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

कभी फलक, कभी उड़ते हुए.....

कभी फलक, कभी उड़ते हुए परिंदे सी.
ख़ुशी मिली है मुझे बारहा न मिलने सी.

शज़र का क्या है के पत्ते भी हिल नहीं पाए 
हवा चली थी किसी परकटे परिंदे सी.