कत्ता
अपनी बातें गौर से सुनने की जिद ठाने हुए.बीच रस्ते में खड़े हैं रस्सियां ताने हुए.
माजरा क्या है हमें कोई बताता ही नहीं
कौन हैं ये लोग? न जाने, न पहचाने हुए.
इस ज़मीं पे आजतक जितने भी मयखाने हुए.
जिंदगी को देखने के उतने पैमाने हुए.
लोग कहते हैं यहां ऐसे भी दीवाने हुए.
दर्दो-गम जिनके लिए उल्फत के नजराने हुए.
रोज जिनकी राह में शमए जलाती थी हवा
रोज अंगारों से खेले ऐसे परवाने हुए.
एक जंगल था यहां पर दूर तक फैला हुआ
बस्तियां बसती गयीं और दफ़्न वीराने हुए.
रंग गिरगिट का बदल जाता है मौसम देखकर
वो कभी अपने भी थे? जो आज बेगाने हुए.
आजतक लेकिन न मिल पाया कभी अपना सुराग
मंजिलें जानी हुई, रस्ते भी पहचाने हुए.
---देवेंद्र गौतम