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रविवार, 2 जनवरी 2011

अपनी हरेक उडान......

अपनी हरेक उडान समेटे परों में हम.
फिर आ चुके हैं लौटके अपने घरों में हम.

सीने में यूं तो रौशनी कुछ ख्वाहिशों की है
रहते हैं फिर भी ग़म के सियह मंजरों में हम.

हमने तमाम उम्र गुजारी है बेसबब
हीरे तलाशते रहें हैं पत्थरों में हम.

हम सब जला चुके हैं वसूलों की फाइलें
अब चैन से हैं जिंदगी के दफ्तरों में हम.

थोड़ी सी दुश्मनी भी ज़रूरी है इन दिनों
बेहिस पड़े हैं दोस्ती के चक्करों में हम.

ख्वाबों का इक गुहर तो दे आंखों की सीप में
जागे हुए हैं सदियों से अंधे घरों में हम.

दुनिया ने तीरगी के हमें ज़ख्म जो दिए
उसको भी क्यों न बाँट दें दीदावारों में हम

गौतम अभी यकीन की सरहद से दूर है
कैसे करें शुमार उसे हमसरों में हम.


----देवेंद्र गौतम 

आंख पथरा गयी....

आंख पथरा गयी बिखर से गए.
हम अंधेरे में आज डर से गए.

हम हुए माईले-सफ़र जिस दिन
रास्ते सब के सब ठहर से गए.

हर तरफ धुंद है, खमोशी है,
काफिले क्या पता किधर से गए.

इक जरा सा ख़ुलूस पाया तो
घाव पिछले दिनों के भर से गए.

आंधियों की करिश्मासाज़ी से
हम परिंदे तो बाल-ओ-पर से गए.

फिर कलंदर-सिफत हुआ सबकुछ
खुदगरज लोग इस नगर से गए.

----देवेंद्र गौतम