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गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

रहगुज़र नक़्शे-कफे-पा से........

रहगुज़र नक़्शे-कफे-पा से तही रह जाएगी.
जिंदगी फिर जिंदगी को ढूंढती रह जाएगी.

मैं चला जाऊंगा अपनी प्यास होटों पर लिए
मुद्दतों दरिया में लेकिन खलबली रह जाएगी.

झिलमिलाती साअतों की रहगुज़र पे मुद्दतों
रौशनी शाम-ओ-सहर की कांपती रह जाएगी.

दिन के आंगन में सजीली धूप रौशन हो न हो
रात के दर पर शिकस्ता चांदनी रह जाएगी.

रौशनी की बारिशें हर सम्त से होंगी मगर
मेरी आँखों में फ़रोज़ां तीरगी रह जाएगी.

लम्हा-लम्हा रायगां  होते रहेंगे रोजो-शब
इस सफ़र में मेरे पीछे इक सदी रह जाएगी.

चाहे जितनी नेमतें हमपे बरस जाएं  मगर
जिंदगी में फिर भी गौतम कुछ कमी रह जाएगी.

-----देवेन्द्र गौतम

हरेक लम्हा लहू में फसाद.......

हरेक लम्हा लहू में फसाद जारी था.
अजीब खौफ मेरे जिस्मो-जां पे तारी था.


तुम्हारी राह में हरसू सुकूं के साये थे
हमारी राह में सहरा-ए-बेकरारी था.


हवा में डूब के देखा तो ये खुला मुझपर
के तिश्नगी का सफ़र हर नफस में जारी था.


मेरी तकान पे कतरा के तुम निकल जाते
यही तो दोस्तों! अंदाज़े-शहसवारी था.


मैं ढाल बन गया खुद अपनी शीशगी के लिए
हरेक सम्त से ऐलाने-संगबारी था.


सजे हुए थे बहुत अजमतों के आईने
मेरी ज़बीं पे मगर अक्से-खाकसारी था,


बुझे हुए थे निगाहों के बाम-ओ-दर गौतम
हमारे दिल में मगर रंगे-ताबदारी था.


----देवेन्द्र गौतम