हर मुसाफिर जुस्तजू की खाक में खोया हुआ.
मंजिलें जागी हुई हैं, रास्ता सोया हुआ.तोहमतों की कालिकें माथे पे रोशन हो गयीं
वरना मैं भी कल तलक था दूध का धोया हुआ.
हर तरफ थी सात रंगों की छटा निखरी हुई
बैठे-बैठे बारहा ऐसा भरम गोया हुआ.
खामुशी की रेत थोड़ा सा हटाकर देख लो
गुफ्तगू का एक दरिया है यहां सोया हुआ.
फ़स्ल ख्वाबों की उगाता भी तो आखिर किस तरह
तीरगी का खौफ जिसके दिल में था बोया हुआ.
जीते जी मैं किस तरह रस्ते में फेंक आता उन्हें
बोझ जिन रिश्तों का इन कन्धों पे था ढोया हुआ.
शाम को जब दोस्तों में वक़्त की बातें चलीं
अपना गौतम लग रहा था किस कदर खोया हुआ.
----देवेन्द्र गौतम