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गुरुवार, 9 जुलाई 2015

आप परछाईं से लड़ते ही नहीं.

मसअ़ले अपने सुलझते ही नहीं.
पेंच इतने हैं कि खुलते ही नहीं.

हम कसीदे पर कसीदे पढ़ रहे हैं
आप पत्थर हैं पिघलते ही नहीं.

लोग आंखों की जबां पढ़ने लगे हैं
कोई बहकाये बहकते ही नहीं.

बात कड़वी है, मगर सच है यही
जो गरजते हैं, बरसते ही नहीं.

चार अक्षर पढ़ के आलिम हो गये
पांचवा अक्षर समझते ही नहीं.

दर्दो-ग़म का शर्तिया होता इलाज
हम मगर हद से गुजरते ही नहीं.

कुछ उजाले का भरम तो टूटता
आप परछाईं से लड़ते ही नहीं.

बेसबब करते हैं मिसरे पे बहस
लफ्ज से आगे निकलते ही नहीं.

एक खेमे में रहे हैं आजतक
हम कभी  करवट बदलते ही नहीं.

-देवेंद्र गौतम