हर लम्हा टूटती हुई मुफलिस की आस हो.
क्या सानेहा हुआ है कि इतने उदास हो.
सच-सच कहो कि ख्वाब में डर तो नहीं गए
आंखें बुझी-बुझी सी हैं कुछ बदहवास हो.
सीने में ख्वाहिशों का समंदर है मौजज़न
तुम फिर भी रेगजारे-तमन्ना की प्यास हो.
बाहर चलो के लज्ज़तें बिखरी हैं चार-सू
मौसम तो खुशगवार है तुम क्यों उदास हो.
वो दिन गए कि तुमसे मुनव्वर थे मैक़दे
अब तुम सियाह वक़्त का खाली गिलास हो.
जिस पैरहन में आबरू रक्खी थी चाक है
यानी हिसारे-वक़्त में तुम बेलिबास हो.
गौतम ग़मों की धूप से कोई गिला न कर
शायद ख़ुशी के बाब का ये इक्तेबास हो.
----देवेंद्र गौतम