मुख्तलिफ रंगों का इक सैले -रवां काबू में था.
इक अज़ब खुशरंग सा साया मेरे पहलू में था.
कुछ नहीं तो इन अंधेरों से झगड़ लेता जरा
जोर इतना कब किसी सहमे हुए जुगनू में था.
कल न जाने कौन सी मंजिल पे जा पहुंचा था मैं
जिंदगी के हाथ में या मौत के पहलू में था.
एक झोंके में कई चेहरे बरहना हो गए
राज़ किस-किस का निहां उस फूल की खुशबू में था.
खामुशी हर बोल पे पहरों बिखरती ही गयी
छोड़कर जाता कहां मुझको वो हमसाया मेरा
शोरो-हंगामा से निकला तो सदाए-हू में था.
बस कि गौतम अब मुझे कुछ याद आता ही नहीं
कौन था वो शख्स जो बरसों मेरे पहलू में था.
------देवेन्द्र गौतम
इक अज़ब खुशरंग सा साया मेरे पहलू में था.
कुछ नहीं तो इन अंधेरों से झगड़ लेता जरा
जोर इतना कब किसी सहमे हुए जुगनू में था.
कल न जाने कौन सी मंजिल पे जा पहुंचा था मैं
जिंदगी के हाथ में या मौत के पहलू में था.
एक झोंके में कई चेहरे बरहना हो गए
राज़ किस-किस का निहां उस फूल की खुशबू में था.
खामुशी हर बोल पे पहरों बिखरती ही गयी
रक्स का सारा मज़ा बजते हुए घुंघरू में था.
छोड़कर जाता कहां मुझको वो हमसाया मेरा
शोरो-हंगामा से निकला तो सदाए-हू में था.
बस कि गौतम अब मुझे कुछ याद आता ही नहीं
कौन था वो शख्स जो बरसों मेरे पहलू में था.
------देवेन्द्र गौतम