किससे-किससे जाकर कहते ख़ामोशी का राज़.. अपने अंदर ढूंढ रहे हैं हम अपनी आवाज़.
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मंगलवार, 14 जून 2011
हमें इस दौर के एक एक लम्हे से.....
हमें इस दौर के एक एक लम्हे से उलझना था.
मगर आखिर कभी तो एक न एक सांचे में ढलना था.
वहीं दोज़ख के शोलों में जलाकर राख कर देता
ख़ुशी का एक भी लम्हा अगर मुझको न देना था.
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सिलसिला रुक जाये शायद.....
सिलसिला रुक जाये शायद आपसी तकरार का.
रुख अगर हम मोड़ दें बहती नदी की धार का.
जब तलक सर पे हमारे छत सियासत की रहेगी
टूटना मुमकिन नहीं होगा किसी दीवार का.
मार्क्स, गांधी, लोहिया, सुकरात, रूसो, काफ्का
सबपे भारी पड़ रहा है फलसफा बाज़ार का.
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ज़मीं की खाक में......
ज़मीं की खाक में देखा गया है.
परिंदा जो बहुत ऊंचा उड़ा है.
हवा का काफिला ठहरा हुआ है.
फ़ज़ा के सर पे सन्नाटा जड़ा है.
मरासिम टूटने के बाद अक्सर
तआल्लुक और भी गहरा हुआ है.
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रेज़ा-रेज़ा बिखर रहे हैं हम.
रेज़ा-रेज़ा बिखर रहे हैं हम.
अब तो हद से गुज़र रहे हैं हम.
एक छोटे से घर की हसरत में
मुद्दतों दर-ब-दर रहे हैं हम.
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