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मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

वही नज़र, वही अंदाज़े-गुफ्तगू .......

वही नज़र, वही अंदाज़े-गुफ्तगू लाओ.
हमारे सामने तुम खुद को हू-ब-हू लाओ.


शज़र-शज़र से जो बेरब्तगी समेत सके
उसी ख़ुलूस के मौसम को चार-सू लाओ.


हरेक हर्फ़ पे रौशन हो ताजगी की रमक
कलम की नोक पे जज़्बात का लहू लाओ.


बहुत दिनों की उदासी का जायका बदले
अब अपने घर में मसर्रत के रंगों-बू लाओ.


किसी लिबास में बेपर्दगी नहीं छुपती
हमारे जिस्म पे मलबूसे-आबरू लाओ.


हरेक वक़्त रफीकों की बात क्या मानी
कभी तो लब पे तुम अफसान-ए-अदू लाओ.


बिखर चुका है बहुत शोरो-गुल फजाओं में
इसे समेट के अब इन्तशारे-हू लाओ.


हमारे सर पे अंधेरों का बोझ है गौतम
कभी हमें भी उजालों के रू-ब-रू लाओ.


----देवेन्द्र गौतम