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सोमवार, 3 जनवरी 2011

वक़्त की आंच में हर लम्हा.....

वक़्त की आंच में हर लम्हा पिघलती गलियां.
हमसे बाबिस्ता हैं तहजीब की बूढी गलियां.

चांद-तारों की चमक आंखों में भरने वाले!
देख कचरे में पड़ी खाक में मिलती गलियां.

आते-जाते रहे हर सम्त से ख्वाबों के नबी
फिर भी चौंकी न कभी नींद की मारी गलियां.

हर तरफ प्यास का सहरा है कहां जाओगे
हर तरफ तुमको मिलेंगी युंही जलती गलियां.

आ! सिखा देंगी भटकने का सलीका तुमको
मेरे अहसास की सड़कों से निकलती गलियां.

सर्द आहों की फ़ज़ा और अंधेरों का सफ़र
सो गए लोग मगर आँख झपकती गलियां.

मन के मोती में चुभी सुई बिना धागे की
याद जब आयीं तेरे साथ सवंरती गलियां.

आओ देखो न! सदा देतीं हैं किसको गौतम
दिल के अंदाज़ से रह-रहके धड़कती गलियां.


----देवेंद्र गौतम  

कैसे-कैसे ख्वाब इन आंखों में....

कैसे-कैसे ख्वाब इन आंखों में संजोते थे हम.
नींद जब गहरी न थी तो देर तक सोते थे हम.

बारहा मिलते थे लेकिन टूटकर मिलते न थे
कुछ कसक रहती थी दिल में जब जुदा होते थे हम.

भीड़ में रखते थे हम भी इक तबस्सुम जेरे-लब
लेकिन जब होते थे तन्हा आंख भिंगोते थे हम.

उन दिनों हम भी नशे में खुलते थे कहते हैं लोग
बात कुछ करते न थे जब होश में होते थे हम.

लम्हा-लम्हा मुस्कुरा के थाम लेता था हमें
वक़्त की बहती नदी में हाथ जब धोते थे हम.


----देवेंद्र गौतम