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शनिवार, 30 मार्च 2013

मतलब निकालते रहो मेरे बयान का

चक्कर लगा के देख चुके आसमान का.
अब खौफ ही नहीं रहा अगली उड़ान का.

परछाइयों के बीच उसे ढूंढते हैं हम
शायद कोई वजूद हो वहमो-गुमान का.

मेरी हरेक बात में शामिल है और बात
मतलब निकालते रहो मेरे बयान का.

चारो तरफ है जाल बराबर बिछा हुआ
खतरा बना हुआ है परिंदे की जान का.

मुझमें सिमट के बैठ गया है जो एक शख्स
किरदार बन गया है मेरी दास्तान का.

बेचैनियों के बीच से होकर गुजर गया
इक पल अगर मिला भी कभी इत्मिनान का.

उसकी नजर गड़ी थी परिंदे की आंख पर
हर तीर था निशाने पर उसके कमान का.

दीवारे-दर को दे गया अपने तमाम अक्स
नक्शा बदल के रख दिया मेरे मकान का.

क्या जाने आज कौन सा मंजर दिखायी दे
बदला हुआ है रंग अभी आसमान का.

गौतम हमारी बात का गर तू बुरा न मान
हर लफ्ज़ आज बख्श दे अपनी जु़बान का.

--देवेंद्र गौतम