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गुरुवार, 3 मार्च 2011

आसमान निहारती बिटिया........

रोज़ रात को सितारों के बीच अपनी मम्मी को ढूँढती है बिटिया
एक आंटी ने बताया था-तारा बन गयी है
उसकी मम्मी.......
इसीलिए हर रात को
आसमान निहारती हर तारे में मम्मी को तलाशती है बिटिया.

कभी अनजान लगता है हर तारा
कभी हर तारे से झांकता है मम्मी का ममता भरा चेहरा
 जैसे पूछ रही हो-
 आज क्या पढा....?
होमवर्क पूरा किया...?
फिर जवाब सुने बिना ही गायब हो जाती है मम्मी.

जब आसमान में छाते हैं बादल....
उदास हो जाती है बिटिया
अब कहाँ तलाशे मम्मी का चेहरा.

सबकी नज़रें बचाकर
अपने खाने का थोडा हिस्सा
आग में डाल आती है बिटिया
हवन करते पंडित अंकल ने कहा था-
अग्नि में जिसके नाम से डाला जाता है भोजन
धुआं बनकर पहुँच जाता है उसके पास.

बिटिया जानती है....क्या-क्या खाना पसंद करती थी मम्मी
और डाक्टर अंकल ने क्या खाने से मना कर रखा था
अब वह... वह सबकुछ खिलाना चाहती है मम्मी को
जो चाहकर भी नहीं खा पाती थी.
बिटिया जानती है.....
मम्मी तारा बन गयी है और तारों को न सुगर होता है
न किडनी की बीमारी .

रोज़ मम्मी के नाम एक चिट्ठी लिखकर आग में जला देती है बिटिया
आग की लपटें खाना पहुंचा सकती हैं तो चिट्ठी भी पहुंचा देंगी
 जलाई हुई चिट्ठियों की राख एक डब्बे में संजोकर रखती है बिटिया
ताकि कभी वापस लौट आये मम्मी
तो दिखलाये के कितनी चिट्ठियां लिखी थीं......
कितना याद करती थी उसे....

बिचारी बिटिया नहीं जानती.....

कोई चिट्ठी नहीं पहुंचेगी मम्मी के पास
और उसकी मम्मी....
किसी तारे में नहीं
उसके दिल में...
दिल की धडकनों में है

-----देवेन्द्र गौतम.




अजमते-अहले-जुनूं की.....

अजमते-अहले-जुनूं की पायेदारी के लिए!
एक हम ही रह गए तजलीलो-ख्वारी के लिए!


जाने कब आंधी उठे इन पत्थरों के शह्र में
शीशा-शीशा मुन्तज़र है संगबारी के लिए.


अब किसी खिड़की पे कोई चांद सा चेहरा नहीं
चिलचिलाती धूप है मंज़र-निगारी के लिए.


फिर मेरे अहसास के आंगन में वो नंगे हुए
जो कहा करते थे सबसे पर्दादारी के लिए.


जब कभी अपनी हदों को तोड़कर निकला हूं मैं
कुछ बहाने मिल गए हैं उस्तवारी के लिए.


एक चौराहे पे कबसे चुप खड़ी है ये सदी
एक लम्हे की तलब है बेकरारी के लिए.


आज फिर गौतम ख़ुशी के अब्र हैं छाये हुए
और आंखें सर-ब-सर हैं अश्कबारी के लिए.


-----देवेंद्र गौतम