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रविवार, 30 सितंबर 2012

अंधी नगरी चौपट राजा

राखे बासी त्यागे ताज़ा.
अंधी नगरी चौपट राजा.

वो देखो लब चाट रहा है
खून मिला है ताज़ा-ताज़ा.

फटे बांस के बोल सुनाये
कोई राग न कोई बाजा.

अंदर-अंदर सुलग रही है
इक चिंगारी, आ! भड़का जा.

बूढा बरगद बोल रहा है
धूप कड़ी है छावं में आ जा.

जाने किस हिकमत से खुलेगा
अपनी किस्मत का दरवाज़ा.

हम और उनके शीशमहल में?
पैदल से पिट जाये राजा?

वक़्त से पहले हो जाता है
वक़्त की करवट का अंदाज़ा.

---देवेंद्र गौतम

बुधवार, 26 सितंबर 2012

हम अपने दुश्मनों को भी रुसवा नहीं करते


हक मिलता मांगने से तो लफड़ा नहीं करते.
हम तो तमाशबीं थे तमाशा नहीं करते.

लफ़्ज़ों के हेर-फेर का धंधा नहीं करते.
हम खुल के बोलते हैं कि पर्दा नहीं करते.

मेहमां बना के रखते हैं अपनी ज़मीन पर
हम अपने दुश्मनों को भी रुसवा नहीं करते.

जो बांटते हैं रौशनी सारे जहान को
जलते हुए दिये को बुझाया नहीं करते.

जो बात जिस जगह की है रखते हैं हम वहीं
हर बात हर किसी को बताया नहीं करते.

आईना हर किसी को दिखाते हैं हम, मगर
कीचड कभी किसी पे उछाला नहीं करते.

अपनी हदों को जानते हैं हम इसीलिए
मुट्ठी में आस्मां को समेटा नहीं करते.

---देवेंद्र गौतम

शनिवार, 15 सितंबर 2012

लुटेरों की निगहबानी में रहना

लुटेरों की निगहबानी में रहना.
तुम अपने घर की दरबानी में रहना.

अगर इस आलमे-फानी में रहना.
तो बनकर बुलबुला पानी में रहना.

शरीयत कौन देता है किसी का
नमक बनकर नमकदानी में रहना.

यही हासिल है शायद जिंदगी का
हमेशा लाभ और हानि में रहना.

ये रहना भी कोई रहना है यारब!
जहां रहना परेशानी में रहना.

बनाना मछलियों का एक दस्ता
मगर से वैर कर पानी में रहना.

कुछ ऐसे दोस्ती अपनी निभाना
पड़े दुश्मन को हैरानी में रहना.

तुम्हारे शह्र में रहने से अच्छा
कहीं जाकर बयाबानी में रहना.

----देवेंद्र गौतम




सोमवार, 10 सितंबर 2012

हमने रिश्ता बहाल रखा था

एक सांचे में ढाल रखा था.
हमने सबको संभाल रखा था.

एक सिक्का उछाल रखा था.
और अपना सवाल रखा था.

सबको हैरत में डाल रखा था.
उसने ऐसा कमाल रखा था.

कुछ बलाओं को टाल रखा था.
कुछ बलाओं को पाल रखा था.

हर किसी पर निगाह थी उसकी
उसने सबका ख़याल रखा था.

गीत के बोल ही नदारत थे
सुर सजाये थे, ताल रखा था.

उसके क़दमों में लडखडाहट थी
उसके घर में बवाल रखा था.

उसकी दहलीज़ की रवायत थी
हमने सर पर रुमाल रखा था.

साथ तुम ही निभा नहीं पाए
हमने रिश्ता बहाल रखा था.

-देवेंद्र गौतम

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

चांद निकला भी नहीं था और सूरज ढल गया.

एक लम्हा जिंदगी का आते-आते टल गया.
चांद निकला भी नहीं था और सूरज ढल गया.

अब हवा चंदन की खुश्बू की तलब करती रहे
जिसको जलना था यहां पर सादगी से जल गया.

धीरे-धीरे वक़्त ने चेहरे की रौनक छीन ली
होंठ से सुर्खी गयी और आंख से काजल गया.

आज मैं जैसा भी हूं तेरा करम है और क्या
तूने जिस सांचे में ढाला मैं उसी में ढल गया.

फिर उसूलों की किताबें किसलिए पढ़ते हैं हम
जिसको जब मौक़ा मिला इक दूसरे को छल गया.

अपना साया तक नहीं था, साथ जो देता मेरा
धूप में घर से निकलना आज मुझको खल गया.

बारहा हारी हुई बाज़ी भी उसने जीत ली
चलते-चलते यक-ब-यक कुछ चाल ऐसी चल गया.

---देवेंद्र गौतम